उत्तरमें इस प्रकारके सबूत सरकारको दिये गये हैं और यह भी बताया गया है कि श्री लवडे तथा अन्य लोग जो विवरण देते हैं, वह बिलकुल झूठा है। इसलिए सरकारको उसपर ध्यान नहीं देना चाहिए और जो गरीब भारतीय अब भी बाहर हैं उनको तुरन्त प्रविष्ट होने देना चाहिए।
९४. पत्र: छगनलाल गांधीको
जोहानिसबर्ग
सितम्बर २३, १९०५
तुम्हारा पत्र मिला। किचिनके सम्बन्धमें तुमने जो लिखा है उससे आश्चर्य होता है। उसके स्वभावसे तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं। वह तुम्हारे ऊपर तो है नहीं। वह जो कुछ कहे, उसका तुम जवाब दे सकते हो। लेकिन इतना ही जरूरी है कि तुम गुस्सा न करो। तुम दोनों एक समान हो और परस्पर प्रश्नोत्तर कर सकते हो। वह जो कुछ भी कहे उसे सहन करनेका अर्थ यह नहीं कि तुम उसे जवाब न दो, बल्कि इतना ही है कि तुम उसका आवेशपूर्वक विरोध न करो। वेस्टका किस्सा जानता हूँ। इसमें मुझसे भूल हुई है। मैंने उसे कहा था कि वह उनके यहाँ चला जाये। किन्तु मैं यह भूल गया कि किचिन साहब किसीका भी साथ बर्दाश्त नहीं कर सकते। उनमें यह अवगुण है। इसका खयाल नहीं करना चाहिए।
मैने तुम्हें अच्छी तरह समझा दिया है कि किचिन या कोई और भी आदमी जाये तो मुझे उसकी परवाह नहीं। इससे छापाखाना बन्द न होगा। मेरा अन्तिम आधार तो तुम और वेस्ट हो। तुम दोनों जबतक बैठे हो तबतक छापाखाना बन्द नहीं होगा। इतनेपर भी यदि तुम्हारे मनमें शंका उत्पन्न होती है तो मैं इसे तुम्हारी कमजोरी मानता हूँ।
छापेखानेमें बिजलीकी रोशनी वगैरापर कितना खर्च हो, यह मुझसे पूछे बिना तय नहीं होगा। फिर भी तुम बैठकमें कह सकते हो कि यह खर्च मुझसे पूछे बिना नहीं किया जायेगा। मैंने इस सम्बन्धमें ज्यादासे-ज्यादा ४० पौंड तक की स्वीकृति देनेको कहा है। मैने उनके घरमें छापेखानेके खर्चसे दफ्तर बनानेकी अनुमति नहीं दी है। टेलीफोनके लिए मैं इनकार नहीं करता।
मेनरिंगको पैसे दिये जायें।
कालाभाईको तुम्हें कहना चाहिए। उसे कितने रुपये दिये गये थे, यह तो मुझे याद नहीं है। लेकिन उसने, सम्भवतः, ५०० रुपये रेवाशंकर भाईसे लिये हैं। तुम कहो तो मैं फिर
१. टान्सवाल विधान परिषदके सदस्य देखिए "श्री लवढे और ब्रिटिश भारतीय", पृष्ठ २२२-२३ ।
२. किचिन के।
३. गांधीजीके चचेरे भाई परमानन्दके पुत्र गोकुलदास उर्फ कालाभाई । ५-६