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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 5.pdf/२८५

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रंगदार लोगोंका प्रार्थनापत्र



असली इलाज भारतीयोंको चोट पहुँचानेके लिए छोटे गोरे फुटकर व्यापारियोंको नष्टकर देना नहीं है, बल्कि भारतीयों और यूरोपीयों — दोनोंके लिए दूकान बन्द करनेके उचित समयका निर्धारण करना है, जिससे बड़ी फुटकर दुकानोंके बन्द हो जानेके बाद वे जीविकोपार्जनका अवसर पा सकें। बड़ी फुटकर दुकानोंको सदा ही छोटी फुटकर दुकानोंके मुकाबले बहुत पहले बन्द करना पड़ेगा। 'विटनेस' ने स्थितिको पूर्वग्रहपूर्ण दृष्टिसे देखा है, इसलिए वह यह कल्पना करनेकी भूल भी कर बैठा है कि बिजलीका खर्च बचनेसे दूकानदारोंको कोई लाभ होगा। हम 'विटनेस' को यह बात समझ लेनेका श्रेय प्रदान करते हैं कि कोई दुकानदार बिजली जलानेका खर्च तबतक बर्दाश्त नहीं करेगा जबतक कि वह उतने घंटोंमें होनेवाले व्यापारके लाभसे खर्च निकालने के अलावा कुछ बचा भी न सकता हो।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २४-३-१९०६
 

२५८. रंगदार लोगोंका प्रार्थनापत्र

'केप ऑफ गुड होप, ट्रान्सवाल और ऑरेंज रिवर कालोनीके निवासी' रंगदार ब्रिटिश प्रजाजनोंने जो प्रार्थनापत्र सम्राटकी सेवामें भेजा है, उसकी एक प्रति हमको भी भेजनेकी कृपा की गई है।

जान पड़ता है कि प्रार्थनापत्र दूर-दूरतक प्रचारित किया जा रहा है और उसपर उक्त तीनों उपनिवेशोंके सब रंगदार लोगोंके हस्ताक्षर कराये जा रहे हैं । प्रार्थनापत्रका स्वरूप अ-भारतीय है, यद्यपि रंगदार लोग होनेके कारण ब्रिटिश भारतीयोंपर इसका बहुत गहरा असर पड़ता है। हम समझते हैं कि समस्त दक्षिण आफ्रिकामें ब्रिटिश भारतीय इस देशकी अन्य रंगदार जातियोंसे पृथक् और प्रभिन्न रहे हैं, यह एक बुद्धिमत्तापूर्ण नीति थी। यह ठीक है कि ब्रिटिश भारतीयों और अन्य रंगदार जातियोंकी बहुत-सी शिकायतें लगभग एक समान हैं, किन्तु जिन दृष्टिकोणोंसे दोनों वर्ग अपनी-अपनी माँगें पेश कर सकते हैं, उनमें कोई समानता नहीं है। जहाँ ब्रिटिश भारतीय अपनी माँगोंके समर्थनमें १८५८ की राजकीय घोषणाका उपयोग कर सकते हैं और प्रभावकारी रूपमें करते भी हैं, वहाँ अन्य रंगदार लोग ऐसा करनेकी स्थितिमें नहीं हैं। जहाँ ऑरेंज रिवर कालोनी में कुछ वर्गोंके रंगदार लोग सम्पत्ति और यातायातके मामलेमें पूरे अधिकारोंकी माँग कर सकते हैं वहाँ ब्रिटिश भारतीयोंको किसी प्रकारका आधार उपलब्ध नहीं है। इसी प्रकार, ट्रान्सवालमें दूसरी रंगदार जातियोंके कई वर्ग, भू-सम्पत्ति रखनेके अधिकारी हैं, परन्तु १८८५ के कानून ३ के अनुसार ब्रिटिश भारतीयोंको ऐसा करना वर्जित है। इसलिए यद्यपि भारतीय और अ-भारतीय रंगदार समाजोंको अलग-अलग रहना चाहिए, और वे अलग-अलग रहते भी हैं एवं उनके अलग अलग संगठन भी हैं, तथापि दोनों अपने सामान्य अधिकारोंपर जोर देने में एक दूसरेको निस्सन्देह शक्ति प्रदान कर सकते हैं। इसलिए, जो कागज हमारे सामने हैं हमें उसका स्वागत करनेमें कोई संकोच नहीं है। जिन्होंने प्रार्थनापत्र तैयार किया है उन्होंने इसमें केवल शुद्ध तथ्योंका ही समावेश किया है। हमें इसके लिए उनको बधाई अवश्य देनी चाहिए। हमें सदैव ही यह लगा है कि दक्षिण आफ्रिकाके रंगदार लोगोंका मामला इतना अधिक सुदृढ़ और न्यायसंगत है कि उसके सम्बन्धमें केवल तथ्य दे देना अन्य किसी भी तर्कसे कहीं ज्यादा प्रभावकारी है। प्रार्थनापत्रमें बहुत-सी बातें नहीं दी गई हैं, किन्तु उसमें वक्तव्योंसे