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९०. प्रार्थनापत्र[१]: लॉर्ड एलगिनको

कॉमन रूम
लिंकन्स इन, डब्ल्यू० सी०
नवम्बर ३, १९०६

सेवामें
परममाननीय अर्ल ऑफ एलगिन
महामहिमके मुख्य उपनिवेश-मन्त्री
लन्दन

लॉर्ड महोदयकी सेवाम नम्र निवेदन है कि,

हम नीचे हस्ताक्षर करनेवाले दक्षिण आफ्रिकाके अधिवासी ब्रिटिश भारतीयोंने बहुत दुःख और चिन्ताके साथ ट्रान्सवालके एशियाई अधिनियम संशोधन अध्यादेशको पढ़ा है और स्वभावतः हम ट्रान्सवालसे आये भारतीय शिष्टमण्डलकी गतिविधियोंको बड़ी दिलचस्पीके साथ देखते रहे हैं।

हम सब दक्षिण आफ्रिकी छात्र हैं। हममें से चार बॅरिस्टरीका अध्ययन कर रहे हैं और एक चिकित्सा शास्त्रका। और जब कि ट्रान्सवालमें अपने देशवासियोंकी स्वतन्त्रताके संघर्षोके प्रति हमारी सहानुभूति स्वाभाविक ही है, हम मुख्यतः अपने लिए तथा ऐसे लोगोंके लिए चिन्तित हैं जिनकी स्थिति हमसे मिलती-जुलती है। इसलिए हम श्रीमानके सम्मुख नये अध्यादेशके प्रकाशमें अपनी स्थितिको स्पष्ट करनेका साहस करते हैं।

हम सभी दक्षिण आफ्रिकामें पैदा हुए या पाले-पोसे गये हैं और भारतकी अपेक्षा दक्षिण आफ्रिकाको अपना घर ज्यादा समझते हैं। हमारी मातृभाषा तक अंग्रेजी है। हमारे माता-पिताओंने बचपनसे हमें वही भाषा बोलना सिखाया है। हममें से तीन ईसाई हैं, एक मुसलमान है और एक हिन्दू।

हमें प्राप्त सूचना, ट्रान्सवालके शान्ति-रक्षा अध्यादेशके प्रभाव, ट्रान्सवालके श्वेतसंघमें की गई लॉर्ड सेल्बोर्नकी घोषणा और जिस वर्तमान एशियाई अधिनियम संशोधन अध्यादेशको लेकर भारतीय शिष्टमण्डल श्रीमानसे भेंट करने के लिए यहाँ आया है उसके अनुसार, तथा जैसी कि प्रथम हस्ताक्षरकर्ताकी व्यक्तिगत जानकारी है (सिवा पहले हस्ताक्षरकर्ताक जो ट्रान्सवालमें रह चुके हैं और जो ट्रान्सवालके माननीय सर्वोच्च न्यायालयमें अंग्रेजी और भारतीय भाषाओंके मान्य अनुवादक और दुभाषियेका काम करते रहे हैं और जिनका एशियाई विभागसे बहुत ही निकट सम्पर्क रहा है), हम सभी ट्रान्सवालमें नहीं जा सकेंगे; क्योंकि हम ट्रान्सवालमें युद्धसे पूर्व नहीं रहते थे। इस निर्योग्यताका विशुद्ध परिणाम यह होगा कि यद्यपि हमें बैरिस्टरी या डाक्टरी पास कर लेनेपर प्रमाणपत्र मिल जायेंगे और हम उन प्रमाणपत्रों और सच्चरित्रताके प्रमाणोंको पेश करके ब्रिटिश उपनिवेशोंके किसी भी भागमें अपना

  1. गांधीजीने इस प्रार्थनापत्रका जी मसविदा तैयार किया था यह उसका अन्तिम रूप हैं। देखिए "पत्र: जॉर्ज गॉडफेको" की पाद-टिप्पणी, पृष्ठ ५८ और "एक परिपत्र", पृष्ठ ६४। प्रार्थनापत्र ८-१२-१९०६ के इंडियन ओपिनियन में छापा गया था।