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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इसलिए यहाँ बहुत ही सावधानीसे काम करना होगा। जबतक कोई एक व्यक्ति उसी काममें लगा नहीं रहता तबतक इस शहरमें सार्वजनिक कार्य करना बहुत ही मुश्किल है। सब लोग सहानुभूति बतलाते हैं, लेकिन यदि उनसे काम लेना हो, तो उन्हें सब पकाकर देना चाहिए, तभी वे कुछ कर सकते हैं। क्योंकि, सभीको काम बहुत रहते हैं। ऐसी समितिके लिए प्रतिवर्ष कमसे-कम ३०० पौंड खर्च आयेगा। इसलिए भारतीय समाज इतना खर्च उठानेका विश्वास दिलाये तभी समिति बनाई जा सकती है। उसके लिए एक कार्यालयकी जरूरत है, उसपर लगभग ५० पौंड वार्षिक खर्च होगा। श्री रिचने अन्तिम परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है; इसलिए जबतक वे यहाँ हैं, बहुत काम कर सकते हैं। उन्हें और कुछ नहीं तो हर माह १० पौंड देना चाहिए। वे स्वयं गरीब आदमी हैं, नहीं तो वे इतने भले हैं कि हमारा काम बिना मुआवजेके करते। मतलब यह कि १७० पौंड सिर्फ किराये और सेक्रेटरीपर ही खर्च होनेकी सम्भावना है। शेष घर, प्रवास, छपाई, भोजन वगैरहपर जो खर्च होगा, उसके १०० पौंड रहेंगे। यह रकम बहुत ही कम है। ३० पौंड साज-सज्जामें लगना सम्भव है। लेकिन यदि इतना खर्च कर दिया जाये, तो काम बहुत ही ज्यादा हो सकता है। सभी बड़े-बड़े कामोंके लिए लन्दन-भरमें ऐसी समितियाँ फैली हुई हैं। हम चीनी लोगोंकी भी ऐसी समिति देखते हैं। हम दोनों यहाँ हैं, तभीतक यह समिति बन सकती है; और काम चूंकि जल्दीका है, इसलिए तार दिया है। उसमें नेटाल और केप दोनों शामिल हो सकते हैं। केपके लिए फिलहाल कुछ करना नहीं है, और चूँकि केपके नेता भी दुःखी हालतमें हैं, इसलिए वहाँसे खर्च माँगनेकी सलाह नहीं दी है। यदि समिति बन गई तो उसमें बहुत-से बड़े-बड़े गोरोंने काम करना स्वीकार किया है।

महिलाओंकी बलिहारी

स्त्रियोंको मताधिकार दिलाने के लिए घोर आन्दोलन चल रहा है। स्वर्गीय वीर कॉबडनकी बहादुर लड़कीको जब सरकारने जेलमें सुविधाएँ देनेकी इच्छा व्यक्त की, तो उसने कि कहा "मुझे चाहे कितना ही दुःख उठाना पड़े, आपकी मेहरबानी नहीं चाहिए। मैं अपने और अपनी बहनोंके हकोंके लिए जेलमें आई हूँ; और जबतक वे हक नहीं मिलते मैं साधारण कैदीके समान रहना चाहती हूँ।" इन शब्दोंसे इन बहनोंकी ओर लोगोंकी सहानुभति बहुत जाग उठी है, और जो अखबार पहले हँसते थे, उनका हँसना अब बन्द हो गया है। इस बहनका उदाहरण हर ट्रान्सवालवासी भारतीयको याद कर लेना चाहिए।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १-१२-१९०६