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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कर दिये गये हैं। अब जो अध्यादेश पास हुआ है उसके कारण, दक्षिण आफ्रिकाके लोग उसके बारेमें चाहे जो कहें, उनकी परिस्थिति अपेक्षाकृत कई गुना खराब और अपमानजनक हो गई है। यह कहा जा सकता है कि ट्रान्सवालमें ये नियम भारतीयोंके फायदेके लिए बनाये गये हैं, किन्तु घनकी चोट निहाई जाने। ट्रान्सवालके भारतीयोंका खयाल है कि इस अध्यादेशके नये विनियम इतने कष्टकारक और अपमानजनक हैं कि उन्हें सहन करना असम्भव है; और जहाँतक मेरा सम्बन्ध है, मैं उनके इस दावे और शिकायतका बड़े जोरसे समर्थन करता हूँ।

इस अध्यादेशके अन्तर्गत ट्रान्सवालमें रहनेवाले प्रत्येक व्यक्तिकी बहुत ही सख्त जाँच की जायेगी; हरएक पासपर उसकी अँगुलियोंके निशान लिये जायेंगे; और बिना पंजीयनके पुरुष, स्त्री या बालक किसीको प्रवेश नहीं दिया जायेगा। यह पंजीयन इतने सख्त ढंगका है कि जहाँतक मुझे याद है, ऐसा कठोर पंजीयन किसी भी सभ्य देशमें सुनने में नहीं आया। इस विनियमके अन्तर्गत ट्रान्सवालके प्रत्येक व्यक्तिको, फिर चाहे वह बालिग पुरुष हो, चाहे स्त्री, चाहे बच्चा, यहाँतक कि दुधमुंहे बच्चोंको भी ऐसी शर्तोपर पंजीयन कराना पड़ेगा जो किसी भी सभ्य देशमें सामान्यतः सजायाफ्ता लोगोंपर ही लागू होती हैं। इस पंजीयनसे बचने, इसकी जानकारी न होने या इसे भूल जानेकी सजाएँ हैं भारी जुरमाना, सख्त कैद, देश निकाला और सर्वनाश। महानुभाव, आप भारतके वाइसराय रहे हैं, उस देशके साथ आपकी सहानुभूति है; आप अवश्य यह बात जानते हैं कि ब्रिटिश झण्डेकी छाया में कहीं भी ऐसा कोई विधान नहीं है; और अगर यूरोपको लें तो में बिना अतिशयोक्तिके कह सकता हूँ कि यहूदी लोगोंके खिलाफ रूसी कानूनको छोड़कर इस महादेशमें कोई ऐसा कानून नहीं है जिसकी तुलना इससे की जा सके; और यदि हम इंग्लैंडमें इसकी मिसाल ढूंढ़ना चाहें, तो वह प्लैंटजेनेट- कालमें ही मिलेगी।

और फिर यह विधान किसके खिलाफ बनाया गया है? यह उन लोगोंके खिलाफ बनाया गया है जो संसारकी सबसे अधिक अनुशासनबद्ध, शिष्ट, उद्योगी और शान्त कौम है; जो हमारे ही रक्त और वंशके हैं और जिनकी भाषाके साथ हमारी भाषाका बहनका रिश्ता है। भारतसे सम्बन्धित उन लोगोंकी उपस्थितिमें जो उसके इतिहासको जानते हैं, यह कहनेकी कोई जरूरत नहीं है कि आज भारतीय समाज क्या है। इसका उल्लेख भी लगभग उसका अपमान है।

और यह विधान किसके इशारेपर बना है? मुझे बताया गया है और मेरा विश्वास है कि ट्रान्सवालके ब्रिटिश समाजके भले आदमियोंका इसमें कोई हाथ नहीं है। मेरा खयाल है कि वे ब्रिटिश भारतीयोंको सभी उचित सुविधाएँ देनेके पक्षमें हैं; इसमें हाथ है ट्रान्सवालमें रहनेवाले पराये राज्योंके विदेशी लोगोंका, जिन्हें भारतीय व्यापारियोंके कारण कुछ असुविधाएँ होती हैं, क्योंकि वे उनको अपेक्षा बहुत अधिक संयमो और उद्योगी हैं। अंग्रेजोंका इसमें कोई हाथ नहीं है। यूरोपके अन्तर्राष्ट्रीय नाबदानसे फेंकी हुई गन्दगी--रूसी यहूदी, सीरियाई, जर्मन यहूदी और इसी तरहके अन्य देशीय लोगोंने इस विधानको प्रोत्साहन दिया है और वे ही भारतीय विरोधी पूर्वग्रहको भी बढ़ावा देते हैं। ब्रिटिश अधिवासी, जिनकी आलोचनामें मैं एक शब्द भी नहीं कहना चाहता, मेरी समझमें ट्रान्सवालके एक अंग हैं। किन्तु ट्रान्सवाल एक जीता हुआ