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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

अनिच्छापूर्वक की गई व्याख्याके अनुसार यह केवल व्यक्तिगत है और उसका समाजसे कोई सम्बन्ध नहीं है, इसलिए वह जमीन उत्तराधिकारियोंको नहीं दी जा सकती। इस अध्यादेशका उद्देश्य इस भूलको सुधारना है। परन्तु मैं उत्तराधिकारियोंका प्रतिनिधि रहा हूँ और इसलिए मैं सोचता हूँ कि वे भी ब्रिटिश भारतीयोंपर लागू होनेवाले इस अध्यादेशको कीमतपर यह राहत पाना पसन्द नहीं करेंगे और निश्चय ही अबूबकरकी भूमि उनके उत्तराधिकारियोंको दे दिये जानेके बदले भारतीय समाज भी ऐसा अध्यादेश स्वीकार करने को तैयार नहीं हो सकता जिसके अन्तर्गत जो कुछ उनका है ही उसे पानेके लिए उन्हें इतनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। इस तरह इस रूपमें भी इस अध्यादेशसे कोई राहत नहीं मिल सकती। जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ, इस अध्यादेशके अन्तर्गत हमें अपराधियोंकी श्रेणी में रख दिया जायेगा।

महानुभाव, वर्तमान विधान काफी कड़ा है। मेरे पास फोक्सरस्टके मजिस्ट्रेटकी अदालतका विवरण है। सन् १९०५ और १९०६ में ट्रान्सवालमें प्रवेश करने के लिए १५० भारतीयोंपर सफलतापूर्वक मुकदमे चलाये गये। मैं यह कहनेका साहस करता हूँ कि ये सब मुकदमे किसी प्रकार भी न्याययुक्त नहीं हैं। मेरा विश्वास है, यदि इन मुकदमोंपर विचार किया जाये तो आप देखेंगे कि इनमें से कुछ सर्वथा बेबुनियाद हैं।

जहाँतक शिनाख्तका सम्बन्ध है, वर्तमान कानून सर्वथा पर्याप्त है। मैं महानुभावके समक्ष अपना पंजीवन प्रमाणपत्र प्रस्तुत कर रहा हूँ। इससे प्रकट हो जायेगा कि शिनाख्त करनेके लिए यह कितना पूर्ण है। वर्तमान कानूनको संशोधन तो कहा ही नहीं जा सकता है। मैं महानुभावके समक्ष पंजीयनकी एक रसीद पेश कर रहा हूँ जो मेरे सहयोगी श्री अलीको ट्रान्सवाल सरकारसे मिली थी। महानुभाव देखेंगे कि यह केवल ३ पौंडकी रसीद है। वर्तमान अध्यादेशके अन्तर्गत पंजीयन भिन्न प्रकारका है। जब लॉर्ड मिलनरने १८८५के कानून ३ को लागू करना चाहा, तब उन्होंने नये पंजीयनका सुझाव दिया। हमने इसका विरोध किया, परन्तु उनकी जोरदार सलाहके अनुसार हमने नये सिरेसे स्वेच्छापूर्वक अपना पंजीयन करा लिया और इसीलिए लॉर्ड होदयके समक्ष यह पत्रक प्रस्तुत है। जब पंजीयन हुआ था तब लॉर्ड मिलनरने जोर देकर कहा था कि यह कानून सदैवके लिए है और जिनके पास ऐसे पंजीयन प्रमाणपत्र होंगे, उनको इसके अनुसार निवासका पूर्ण अधिकार होगा। क्या अब यह सब बेकार जायेगा? महानुभाव निश्चय ही पूनियाका[१] मामला जानते हैं जिसमें वह गरीब भारतीय स्त्री, जो अपने पतिके साथ थी, पतिसे जुदा कर दी गई थी और मजिस्ट्रेटने उसे आज्ञा दी थी कि वह इस देशको ७ घंटेके अन्दर छोड़ दे। सौभाग्यसे, अन्तमें उसे राहत दी गई; क्योंकि मामला समयपर अदालत में पेश हो गया था। ११ वर्षसे कम आयुका एक लड़का भी गिरफ्तार किया गया था। उसपर ५० पौंड जुरमाना या ३ महीने की कैदकी सजा सुनाई गई, जिसके बाद उसे देश छोड़ देनेका हुक्म हुआ। इस मामले में भी सर्वोच्च न्यायालयने न्याय किया। यह सजा सर्वथा गलत घोषित की गई और सर जेम्स रोज-इन्सने कहा कि यदि ऐसी नीतिका अनुसरण जारी रहा तो शासन अपनेको उपहासास्पद और निंद्य बना लेगा। वर्तमान कानून इस तरह ब्रिटिश भारतीयोंको दण्ड देनेके लिए काफी कड़ा और सख्त है, तो क्या

  1. देखिए खण्ड ५, पृष्ठ ४६३-६४।