भारतीय समाजको पहले प्राप्त थे। इस समय इन अधिकारोंके विस्तारकी माँग नहीं करते। इससे मामला सीमित हो जाता है; क्योंकि मेरे विचारमें आप प्रश्नको इस अध्यादेश तक ही सीमित रखना चाहते हैं।
सर लेपेल ग्रिफिन: फिलहाल तो ऐसा ही है, महानुभाव। इस प्रश्नपर बादमें लड़ेंगे। अर्ल ऑफ एलगिन: हाँ, ठीक है। मैं आजकी और उस उत्तरकी बात सोच रहा हूँ जो मुझे देना है।
सर लेपेल ग्रिफिन: जी हाँ।
अर्ल ऑफ एलगिन: मैं यह बात सिर्फ इसलिए कहता हूँ कि मेरा उत्तर यथातथ्य रहे। इसलिए प्रश्न इस अध्यादेशके सम्बन्ध में है। और मैंने अभी इसके दलीय प्रश्न न होने के सम्बन्धमें जो बात कही उसके बाद, मैं आशा करता हूँ, आप मेरी यह बात स्वीकार कर लेंगे कि ट्रान्सवाल सरकारके प्रमुख अधिकारियोंका भी ऐसा इरादा नहीं था। उन्होंने मुझसे साफ-साफ कहा कि जो कानून पेश किया गया है उसमें उनका इरादा ब्रिटिश भारतीय समाजको स्थिति बिगाड़ना नहीं बल्कि सुधारना है, और कुछ नहीं। मैं यह नहीं कहता कि आप इस विषयकी आलोचना नहीं कर सकते किन्तु मैं चाहता हूँ कि आप मेरी यह बात स्वीकार कर लें कि कानून पेश करनेमें इरादा यही था।
अब, श्री गांधीने यह स्पष्ट किया है कि कुछ मामलोंमें, उदाहरणार्थ व्यक्ति-करके मामलेमें, अध्यादेशमें दी गई कथित रियायत भ्रामक है। मैं स्वीकार करता हूँ कि मेरे खयालसे उनके इस वक्तव्यमें कुछ सार है कि इस प्रतिबन्धके अन्तर्गत, जिसका उल्लेख मैंने अभी किया है, जो लोग आयेंगे, उनमें से ज्यादातर शायद ३ पौंड दे चुके होंगे। किन्तु इसके साथ ही ट्रान्सवालमें ब्रिटिश भारतीयोंके दर्जेकी हद तक इसपर विचार करते हुए मुझे लगता है कि सरकारका यह खयाल बिलकुल उचित हो सकता है कि वह व्यक्ति-करको अन्तिम रूपसे हटाकर इस मामलेमें ब्रिटिश भारतीयोंका दर्जा सुधार रही है।
अब अनुमतिपत्रों या पंजीयनके प्रश्नको लें; हम एक अनुमतिपत्र देख चुके हैं जो बोअरोंके प्रशासनमें दिया गया था। यह रकमकी रसीद-भर है। बोअर प्रशासन इस सम्बन्धमें और अन्य कई मामलोंमें भी इतना यथातथ्य नहीं था, जितना निश्चय ही हमारी दृष्टिमें ब्रिटिश सरकारके अन्तर्गत प्रचलित प्रशासन है। और इसीलिए मैं केवल वह दृष्टिकोण बता रहा हूँ जो मेरे सम्मुख रखा गया है। ट्रान्सवालकी सरकारका दृष्टिकोण यह है: जो स्थिति बोअरसरकारसे उन्हें विरासतमें मिली थी उसमें बड़ी गड़बड़ी थी और बड़ी प्रशासनिक कठिनाइयाँ थीं। फलस्वरूप खासी कशमकश रहती थी और मामलोंके निबटारेमें भी बहुत देर होती थी जिसके चिह्न मुझे इस प्रार्थनापत्रमें भी दिखाई पड़ रहे हैं। मैं समझता हूँ कि इसी उद्देश्यसे ट्रान्सवालकी सरकारने पंजीयनका रूप बदलनेका प्रस्ताव किया; किन्तु उन्होंने मुझे जो आवेदन दिये हैं उनके अनुसार पंजीयनके उस रूपको विधिवत् दिये गये अनुमतिपत्रोंसे ज्यादा अत्याचारपूर्ण बनानेका उनका कदापि कोई इरादा नहीं था।
और में विस्तारसे चर्चा तो नहीं करना चाहता, फिर भी यदि में एक क्षणके लिए अँगूठा-निशानीके इस प्रश्नपर गौर करूँ तो मुझे खयाल आता है कि अँगूठा-निशानी पहले-पहल प्रमुख रूपसे ध्यानमें तब आई जब सर हेनरी कॉटन और मैं भारतके प्रशासनमें साथ-साथ थे--अर्थात् हमारे मित्र श्री हेनरीके मातहत, जिनको अब इस नगरमें प्रमुख स्थान प्राप्त है।