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[सम्पादक 'टाइम्स' लन्दन

१८६ पत्र: 'टाइम्स' को [१]

[होटल सेसिल
लन्दन
नवम्बर १६, १९०६]

महोदय,]

आपके कलके अंकमें कुछ भारतीयों द्वारा ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीय शिष्टमण्डलके विषय में दिये गये "प्रार्थनापत्र" पर लोकसभा में जो प्रश्नोत्तर हुए, उनका विवरण प्रकाशित हुआ है। कदाचित् उसपर मेरा कुछ कहना जरूरी है। उसमें कहा गया है कि मेरे पास कोई आदेशपत्र नहीं है, मैं पेशेवर आन्दोलनकारी हूँ और भारतीय पक्षकी मेरी वकालतसे भारतीयोंको हानि पहुँच रही है।

मेरे सहयोगीकी तथा मेरी नियुक्ति सर्वसम्मिति से एक सार्वजनिक सभामें हुई थी। इस बातका हमारे पास प्रमाणपत्र है।[२] ब्रिटिश भारतीय संघके मन्त्रीकी हैसियतसे मैंने जोहानिसबर्ग में जो सार्वजनिक सभा बुलाई थी, उसने शिष्टमण्डल भेजनेका सिद्धान्त स्वीकृत कर लिया था। इस "प्रार्थनापत्र" पर जिन सज्जनने[३] पहले हस्ताक्षर किये हैं, वे सभामें उपस्थित थे और उन्होंने जोरदार व्याख्यान दिया था और सभी मुख्य प्रस्तावों का अनुमोदन किया था। इसके अलावा उन्होंने स्वयं शिष्टमण्डलमें शामिल होनेकी तत्परता दिखाई थी, किन्तु वह बात स्वीकृत नहीं हुई। "प्रार्थनापत्र" पर दो भारतीयोंने हस्ताक्षर किये हैं। इस "प्रार्थनापत्र" को उस कागजसे अलग करके देखना आवश्यक है जिसपर कहा जाता है, ४३७ भारतीयोंने हस्ताक्षर करके हमारी नियुक्तिका प्रतिवाद किया है। जहाँतक इसका सवाल है, इस विषयमें इसी १० तारीखको जोहानिसबर्गसे शिष्टमण्डल के प्रतिनिधियोंको निम्नलिखित तार मिला था: "हलफिया बयान कि गॉडफेने झूठे बहानोंसे, 'बिआस' (ब्रिटिश इंडियन असोसिएशनका सांकेतिक शब्द) नामका प्रयोग करके, सादे काजगपर हस्ताक्षर प्राप्त किये; हस्ताक्षर अब वापस ले लिये गये हैं। (लॉर्ड) एलगिनको तार दे रहे हैं। समाचारपत्रोंने सम्मेलनके पूर्ण विवरण छापे हैं।" स्पष्ट है कि उक्त तार संवाददाताओं द्वारा तारसे भेजे गये भेंटका विवरण पहुँचनेपर दिया गया है।

इस घटनाका अर्थ यह नहीं है कि "प्रार्थनापत्र" पर हस्ताक्षर करनेवाले दोनों व्यक्ति एशियाई अध्यादेशसे सहमत हैं, उलटे स्पष्टतया उनकी राय यह है कि जिस कानूनसे वे दूसरे

  1. यह टाइम्स में प्रकाशित नहीं हुआ था।
  2. देखिए "भेंट: 'साउथ आफ्रिका' को", पृष्ठ १८२-८३।
  3. डॉ० विलियम गॉडफ्रे।