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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सर्वत्र ऐसी विजय मिल रही है, जो दिन दूनी बढ़ती जान पड़ती है तथा जिसके कारण बड़ेसे-बड़े शत्रुओंको भी उनकी सराहना करनी पड़ती है। स्वयं मुझे यह छानबीन इसलिए करनी पड़ी कि यहाँ से लौटकर जानेवाले हमारे बहुत-से देशवासियोंने इस प्रश्नके जो उत्तर दिये, वे मुझे असन्तोषजनक लगे। मैंने उनसे बराबर यह प्रश्न पूछा: "इंग्लैंडसे आपने क्या सीखा है या लौटकर आप अपने देशवासियोंको कौन-सा सुधार सुझाना चाहते हैं?" और ऐसे प्रश्नोंका मुझे यही दुःखद और खेदजनक उत्तर मिला कि वे अपने तात्कालिक अध्ययन और काम-काजमें इतने व्यस्त रहे कि उनको अपने आसपास के लोगों या चीजोंके बारेमें सोचनेके लिए समय ही नहीं मिला। जहाँतक अपने देशमें सुधार करनेका प्रश्न है वह स्थानीय स्वार्थीको प्रभावित करता है और इसलिए उसपर स्थानीय रूपसे विचार करना जरूरी है। अब सज्जनो, मेरा कहना यह है कि ऐसे उत्तर कतई सन्तोषजनक नहीं हैं। मैं यह कहने की जिम्मेदारी नहीं लूँगा कि जो लोग देश लौटकर जाते हैं उनमें से अधिकांशकी मनोदशा यही होती है; और मैं आशा करता हूँ कि मेरी बात गलत साबित हो। जो भी हो, मेरी समझमें यह जानकारी कि हममें से एक भी व्यक्ति ऐसी नितान्त उदासीनता और शंकाकी मनोदशामें अपने देश लौट सकता है, इस प्रकारके निबन्धमें ऐसे उल्लेखके औचित्यको पर्याप्त रूपसे साबित कर देती है। अंग्रेज विदेशमें जैसा होता है स्वदेशमें उससे बिलकुल भिन्न होता है। विदेशमें वह सचमुच ही अत्याचारी और स्वेच्छाचारी होता है पर इंग्लैंडमें शायद ही कोई उसे अवांछनीय व्यक्ति कहे।

अतः इससे स्पष्ट हो जायेगा कि वस्तुतः हम इस देशमें पहलेसे ही न्यूनाधिक रूपमें पूर्वगृहीत धारणाओं और विचारोंको लेकर आते हैं, जिन्हें कुछ तो कभी नहीं बदलते, और इसलिए वे अंग्रेजोंमें न कोई अच्छाई देखते हैं और न उनकी प्रशंसा कर पाते हैं। हम कभी यह महसूस नहीं करते कि हम स्वदेशसे इतनी दूर अपनी भलाई और उस अनुभव और मर्यादाको प्राप्त करने आये हैं जिसको वहाँ प्राप्त करना हमारे लिए जरा कठिन है। हम केवल किसी खास धन्धे में योग्यता प्राप्त करनेके इरादेसे नहीं, बल्कि उसके साथ-साथ संसार और उसके तौर-तरीकोंका वह व्यापक अनुभव प्राप्त करनेके लिए आते हैं जो केवल विदेशयात्रा करनेसे ही मिल सकता है। हमने इस देशके अपने प्रवास-कालमें जो विविध बातें सीखीं यदि उनमें से कुछका लाभ हम अपने देशको नहीं देते तो हमारा यहाँ आनेका उद्देश्य ही व्यर्थ हो जाता है। यहाँकी अच्छी से अच्छी बात लेकर हम वापस जाना चाहते हैं। यदि हम ऐसा नहीं करते तो उसमें हानि हमारी हो है और साथ ही, अपने देशकी बात तो दूर रही, हम अपने प्रति भी कर्तव्यका पालन नहीं करते।

सभी लोग मानते हैं कि जापानियोंको सफलता इसीलिए मिली है, वे पिछले ५० से भी अधिक वर्षोंसे अपने छात्रों और विशेषज्ञोंको बाहर भेजते रहे हैं। इसमें उनका मुख्य उद्देश्य यही था कि वे सर्वोत्तम ज्ञान प्राप्त करें, नवीनतम और आधुनिकतम आविष्कारोंको सीखें और यूरोपकी विद्या, प्रगति और उन्नतिके विचारोंका सार अपने देशके लाभार्थं अपने साथ ले जायें। और देखिए कि वे इस ज्ञान और विचारधाराको केवल लेकर ही नहीं लौटे, बल्कि उन्होंने उसका ऐसा सफल विनियोग किया कि उससे सारी दुनिया दंग रह गई।

अब हम उनके कुछ गुणोंपर विचार करें, उनका मूल्यांकन करें और देखें कि क्या वे अनुकरण-योग्य हैं। दुर्गुणोंको हम छोड़े देते हैं। उनके समस्त इतिहासमें हम यह देखते हैं कि