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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इससे मेरी नम्र रायमें छल-कपटसे प्रवेशकी बात अपने-आप कट जाती है। यदि इस आरोपको असिद्ध मान लें, तो ब्रिटिश भारतीय समाज द्वारा प्रोत्साहनकी बात ठीक नहीं हो सकती, यह स्पष्ट हो जाता है।

पिछले दो वर्षों में १५० से कम मामले नहीं चलाये गये अर्थात् १५० ब्रिटिश भारतीय जबरदस्ती बाहर निकाल दिये गये हैं। मैं नहीं जानता कि ये सभी चालान ठीक थे या नहीं, किन्तु यह एक तथ्य है कि ये सारे भारतीय निकाल दिये गये थे। शान्ति-रक्षा अध्यादेश भारतीय पत्नियों को अपने पतियोंके साथ आने देनेके मामले में बहुत सख्त रहा है; कोमल आयुके भारतीय बच्चोंको भी ट्रान्सवाल में प्रवेश देनेपर वह बहुत सख्त रहा है, क्योंकि उनके पास अनुमतिपत्र नहीं थे। वर्तमान कानून, अर्थात् शान्ति-रक्षा अध्यादेश, ब्रिटिश भारतीयोंके छल-कपटपूर्ण प्रवेशको रोकने के लिए पर्याप्त है। कुछ भी हो, ब्रिटिश भारतीयोंने इन दोनों वक्तव्योंका बार-बार खण्डन किया है और इसी कारण हम स्थानीय सरकारसे इस तथ्य की जाँच के लिए एक छोटे आयोगकी नियुक्तिका अनुरोध करते रहे हैं कि सचमुच बड़े पैमानेपर प्रवेश हो रहा है अथवा नहीं।

तथापि मैं नहीं समझता कि मुझे बहुत अधिक समय लेनेकी जरूरत पड़ेगी; मैंने लॉर्ड एलगिनको आवेदनपत्र भेजा है, जिसमें पूरी स्थिति उनके सामने आ जाती है; किन्तु मैं एक बात अवश्य कहना चाहता हूँ और वह है, उपनिवेशकी भावना। मैं तमाम दक्षिण आफ्रिका के प्रतिबन्धक विधानके इतिहासका अध्ययन करता रहा हूँ कमसे कम पिछले १३ वर्षोंसे—और मुझे अच्छी तरह याद है कि १८९४ में लॉर्ड रिपनने मताधिकार अपहरण विधेयकका निषेध कर दिया था, क्योंकि वह केवल एशियाइयोंपर लागू होता था। ब्रिटिश भारतीयोंपर प्रतिबन्ध लगाने के बारेमें १८९७ में प्रस्तुत किये गये एक विधेयक के मसविदेको श्री चेम्बरलेनने नामंजूर कर दिया था। उस समय श्री चेम्बरलेनने कहा था कि एशियाई और ब्रिटिश प्रवेशपर प्रतिबन्ध लगाने के उद्देश्यसे विधानमें वे कोई वर्ण-भेदकी रेखा खींचनेकी इजाजत नहीं दे सकते और इसलिए हमें १८९७ का कानून मिला। आस्ट्रेलियाकी लोकसभा में एशियाई बहिष्करण विधेयकपर बिना किसी हिचकिचाहटके ऐसे ही निषेधाधि कारका प्रयोग किया गया था। किन्तु, महोदय, ट्रान्सवाल में—पिछले साल भी, ऐसा ही मेरा खयाल है, या १९०४ में—विधान परिषदने वतनी भूस्वामित्व विधेयक पेश किया और मेरे खयाल में एक भी व्यक्ति ने इसका विरोध नहीं किया था; किन्तु फिर भी भूस्वामित्व विधेयकका निषेध करनेमें श्री लिटिलटनने तनिक भी आगा-पीछा नहीं किया। महोदय, उक्त विधेयक और वर्तमान अध्यादेशमें एक बहुत बड़ा अन्तर है और मैं यह सोचनेकी धृष्टता करता हूँ कि उस विधानपर कदाचित् इतनी बड़ी कोई आपत्ति नहीं थी जितनी बड़ी इस विधानके बारेमें है, क्योंकि वह ट्रान्सवालके वतनियोंके जमीन-जायदाद रखनेपर प्रतिबन्ध नहीं लगाता था, वह केवल उन वर्तनियोंपर लागू होता था जिनके पास जमीन-जायदाद थी; किन्तु लॉर्ड लिटिलटनने उसे भी बहुत सख्त माना और उस विधानका निषेध करनेमें तनिक भी आगा-पीछा नहीं किया।

ब्रिटिश भारतीयोंके खिलाफ उपनिवेशीय भावनाके बारेमें बहुत-कुछ कहा गया है; यद्यपि यह बात विचित्र मालूम होगी, तथापि मुझे इस भावनासे इनकार करने में कोई हिचक नहीं। "हाथ कंगनको आरसी क्या"। ब्रिटिश भारतीय ट्रान्सवालमें केवल इसलिए हैं कि वहाँके गोरे उपनिवेशीय उनका रहना बरदाश्त करते हैं। उन्हें जमीन के लिए अंग्रेज या गोरे स्वामियोंके पास भले ही जाना पड़ता हो; अपने मालके लिए गोरे व्यापारियोंके पास जाना पड़ता है