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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

किया है, जिससे (सिवा उन लोगोंके जिनको एक दर्जा हासिल है) ब्रिटिश भारतीयोंका आव्रजन रुक जाता है और उनका अपमान भी नहीं होता। समाजने सभी नये व्यापारिक परवानोंपर स्थानीय निकायों या नगरपालिकाओंके नियन्त्रणका सिद्धान्त भी स्वीकार कर लिया है, बशर्तें कि सर्वोच्च न्यायालय में अपीलका अधिकार रहे।

एशियाई अधिनियम- संशोधन अध्यादेशपर आपत्ति इसलिए नहीं की गई है कि उससे आव्रजनपर रोक लग जाती है, बल्कि इसलिए कि वह ट्रान्सवालके अधिवासी ब्रिटिश भारतीयोंकी सामान्य नागरिक स्वतन्त्रताका भी अवरोधक है। भारतीयोंके आव्रजनपर रोक वर्तमान अध्यादेश से नहीं लगेगी; उस उद्देश्यको पूरा करने के लिए तो, जैसा आपको विदित है, शान्ति-रक्षा अध्यादेशका दुरुपयोग किया गया है।

आप कहते हैं कि भारतीयोंके साथ दक्षिण आफ्रिकाके वतनियोंसे ज्यादा अच्छा व्यवहार नहीं किया जा सकता। इस उक्तिपर कोई विवाद छेड़े बिना क्या मैं आपको यह बता सकता हूँ कि उनके साथ वतनियोंसे ज्यादा बुरा व्यवहार किया जा रहा है, क्योंकि जहाँ वतनी ट्रान्सवालके किसी भी भाग में भूसम्पत्तिके स्वामी हो सकते हैं, भारतीय इस अधिकारसे सर्वथा वंचित हैं।

आपका, आदि,
मो॰ क॰ गांधी

[अंग्रेजीसे]
साउथ आफ्रिका, २४–११–१९०६
 

२४१. पत्र : थियोडोर मॉरिसनको

[होटल सेसिल
लन्दन]
नवम्बर २२, १९०६

प्रिय श्री मॉरिसन,

साथमें एक कतरन भेज रहा हूँ। इसके चिह्नित अंश लॉर्ड सेल्बोर्नकी उक्तियाँ हैं। इनमें से एक युद्धके पहलेकी है और दूसरी अभी हालकी।

श्री लिटिलटनको लिखे हुए सर मंचरजी के पत्रकी प्रति भी निशान लगाकर भेज रहा हूँ।

आप देखेंगे कि लॉर्ड एलगिनको दिये गये आवेदनपत्र में यह स्पष्ट कर दिया गया है। कि हम केपके ढंगपर बननेवाले कानूनसे सन्तुष्ट हो जायेंगे। आपके पास आवेदनपत्र की प्रति है ही। यदि जरूरत हुई तो मैं और भी प्रतियाँ भेज दूँगा। मुझे आशा है कि एशियाई अध्यादेशपर जो मूल आपत्ति है उसपर आपने ध्यान दिया होगा। आपत्ति यह है कि उसमें पहले-पहल रंग-भेदको स्थान दिया गया है और उसका अर्थ उपनिवेशीय परम्परासे विलग होना है। यदि पिछले वर्ष वतनी भूस्वामित्व विधेयक (नेटिव लैंड टेन्युअर बिल) पर निषेधाधिकारका प्रयोग करनेमें कोई हिचकिचाहट नहीं हुई थी, तो यह बात समझ में नहीं आती कि