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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बन जाता है और ब्रिटिश भारतीयोंके लिए 'साम्राज्य' शब्द अर्थहीन हो जाता है। इंग्लैंड आकर अपना मामला सरकारके सामने रखनेमें हमारी कतई यह इच्छा नहीं कि हम ट्रान्सवालमें यूरोपीय उपनिवेशियोंका हिंसात्मक प्रतिरोध करेंगे। हमारा तो पूर्णतः प्रति-रक्षात्मक रुख हैं। जब स्थानीय सरकार ट्रान्सवालकी प्रजाके नामपर रंगभेदको प्रश्रय और बढ़ावा देनेके लिए आक्रमणात्मक विधानको[१]स्वीकृतिके लिए साम्राज्य सरकारके पास भेजती है तब हमें आत्मरक्षा के लिए मजबूर होकर प्रश्नका भारतीय पक्ष उसी सरकारके सामने रखना पड़ता है। अपने आचरण द्वारा तथा उपनिवेशियोंको यह दिखाकर कि उनके हित हमारे हित भी हैं और हमारा लक्ष्य उनकी तथा अपनी सामान्य प्रगति है, हम अपने उद्धारका मार्ग ढूँढ़ निकालनेको चिन्तित और इच्छुक हैं। यदि चन्द लोगोंका भारतीय-विरोधी पूर्वग्रह सम्राट्की मुहरके नीचे विधानका रूप लेकर ठोस बन जाता हैं तो हमें साँस लेनेका भी मौका नहीं मिलेगा, और ऐसी दशामें हम यह कार्य नहीं कर सकते।

आपके,
मो॰ क॰ गांधी
हा॰ व॰ अली

[अंग्रेजीसे]
टाइम्स, ३-१२-१९०६
 

२८३. पत्र : लॉर्ड एलगिनके निजी सचिवको

यूनियन-कासिल लाइन
आर॰ एम॰ एस॰ 'ब्रिटन'
साउथैम्प्टन डॉक्स
दिसम्बर १, १९०६

[सेवामें
निजी सचिव
उपनिवेश-मंत्री
लन्दन]
प्रिय महोदय,

मैं रात-दिन इतना व्यस्त रहा कि अपने पहले के वादेके अनुसार लॉर्ड एलगिनको नेटालपर अपना वक्तव्य[२] अबसे पहले नहीं भेज सका। चूँकि श्री टैथमके विधेयकको नेटाल संसदने नामंजूर कर दिया था, इसलिए मैंने उसे छोड़ दिया।

  1. इंडियन ओपिनियनमें छपा पाठ इस प्रकार है : ". . .प्रजाके नामपर आक्रमणात्मक प्रतिबन्धात्मक विधान,. . ."
  2. देखिए साथका "संलग्न पत्र"।