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केप में अत्याचार

शोभाके लिए नहीं, बल्कि काले लोगोंके सच्चे बचाव के लिए रखी गई हो, तो 'नेटाल मर्क्युरी' का तर्क रद हो जाता है। अतः यह माननेके लिए जबरदत कारण हैं कि नेटालका विधेयक भी रद हो जाना चाहिए।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, २९-१२-१९०६
 

२९३. केपमें अत्याचार

हमें मालूम हुआ है कि केपके प्रवासी कानूनके अनुसार जब भारतीय प्रवासी प्रमाणपत्र अथवा अनुमतिपत्र लेते हैं तब अपनी तसवीर, एक पौंड शुल्क और, इसके अलावा कभी-कभी अपने दाहिने और बाँयें अँगूठोंके निशान देते हैं। हमें यह भी मालूम हुआ है कि यह कुछ अरसेसे चल रहा है। इस हकीकतसे हम बहुत ही दुःखी हैं। यह रिवाज भारतीय समाजको नीचा दिखानेवाला है; इतना ही नहीं, यदि यह बन्द न किया गया तो इससे दक्षिण आफ्रिकाकी सारी भारतीय प्रजाको नुकसान होगा और केपके छींटे दूसरी जगह उड़ेंगे। इसका उपाय बहुत ही आसान है; क्योंकि हमारी रायमें यह कार्रवाई बाकायदा नहीं है। प्रवासी-अधिकारीने कुछ भारतीयोंसे पूछकर तसवीरका नियम दाखिल किया है। इसलिए इस सम्बन्धमें भारतीय यदि प्रवासी अधिकारीसे मिलें, तो सम्भव है तत्काल सुनवाई हो जायेगी। यह सुननेको हम आतुर हैं कि इस सम्बन्धमें जरा भी ढील नहीं की गई और बहुत ही प्रभावशाली उपाय काममें लाये गये हैं। ट्रान्सवालमें एक समय एशियाई अधिकारियोंने ऐसा ही नियम लागू किया था। लेकिन भारतीय समाजके विरोध करनेपर उसे रद कर देना पड़ा था।

इन प्रमाणपत्रोंके सम्बन्धमें यह भी देखा गया है कि ये सिर्फ एक वर्षके लिए हैं। ऐसा होने का भी कोई कारण नहीं। जिसे अंग्रेजी भाषाका ज्ञान न हो, और जो केपका निवासी हो उसे केपमें वापस आनेका हक है, इस तरहका स्थायी प्रमाणपत्र मिलना चाहिए। हम कोई कैदी नहीं जो हमें अमुक समय तक बाहर रहनेकी अनुमति मिले और यदि समयकी मर्यादामें न लौट सकें तो वह परवाना रद हो जाये। केपकी स्थिति और जगहोंसे अभी अच्छी मानी जाती है। हम केपके नेताओंको सलाह देते हैं कि वे इस स्थितिको बड़ी सावधानी के साथ सँभाल कर रखें।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, २९-१२-१९०६