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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मतभेद नहीं हुआ। सत्य तो यह है कि हम दोनों मेल और प्रेमसे बाप-बेटेकी तरह काम करते रहे और इसीसे विजय पानेमें समर्थ हो सके हैं। हमारे धर्म भिन्न होनेके बावजूद मोर्चेपर हम दोनों एक रहे। यह बात सभीको याद रखनी है। दूसरे, हमारे पक्षमें सत्य और न्याय भी था। मैं खुदाको हमेशा अपने पास ही समझता हूँ। वह मुझसे दूर नहीं है। मेरी प्रार्थना है कि आप सब भी ऐसा ही मानें। खुदाको अपने पास समझें, और हमेशा सत्यका आचरण करनेवाले बनें।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, १२-१-१९०७
 

२९७. डर्बनके स्वागत समारोहमें भाषण

मंगलवार, जनवरी ३, १९०७ को विक्टोरिया स्ट्रीटके भारतीय नाटकघरमें मुस्लिम संघ द्वारा गांधीजी तथा श्री अलीको अभिनन्दनपत्र भेंट किया गया था। उस अभिनन्दनपत्र तथा सर्वश्री दाउद मुहम्मद, दादा अब्दुल्ला एवं अन्योंके भाषणोंके उत्तरमें गांधीजी तथा श्री अलीने भी भाषण दिये थे। उनके भाषणोंकी संयुक्त रिपोर्ट नीचे दी जाती है :

[डर्बन
जनवरी ३, १९०७]

प्रतिनिधियोंने भाषण दिये। दोनोंने विस्तृत राजनीतिपर अलग-अलग प्रकाश डालकर अपने श्रोताओंको बताया कि उन्हें इंग्लैंड में कितना कठिन कार्य करना पड़ा था। उन्होंने सर मंचरजीका, जिन्होंने अपने भारी प्रभाव और दीर्घ अनुभवका लाभ उन्हें दिया, उनकी उत्तम सेवाओं और महत्वपूर्ण परामर्शके लिए आभार माना। उन्होंने बताया कि कलकत्ता सर्वोच्च न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीश श्री अमीर अलीने भी उन्हें ऐसी ही सहायता दी थी। सम्राट्की प्रजाकी एक तिहाई, अपनी ३०,००,००,००० जनसंख्याके साथ, ब्रिटिश साम्राज्यका एक मूल्यवान अंग होनेके कारण भारतका जो महत्त्व है उसका उनकी सफलता में काफी हद तक योग रहा है। बहुत-सी सभाओं में अंग्रेज श्रोताओंसे पूछा गया था कि क्या वे दक्षिण आफ्रिकाके उपनिवेशियोंको भारतके उन पुत्रोंके साथ दुर्व्यवहार करने देंगे, जिन्होंने चीन, दक्षिण आफ्रिका, सोमालीलैंड एवं सूडानमें तथा भारतको सीमाओंपर उनके लिए यद्ध लड़े हैं? उन लोगों के साथ, जिनकी वफादारीका पता यह याद करके लग जाता है कि भारतमें अपन ३० करोड़ बन्धु प्रजाजनोंकी देखरेख के लिए मुट्ठी-भर गोरे सिपाही (करीब ७८,०००) ही काफी हैं? और क्या वे यह पसन्द करेंगे कि ट्रान्सवालके १३,००० भारतीयोंके प्रतिनिधि जब भारत वापस जायें तब वे अपने सम्बन्धियोंको बतायें कि वह महान सम्राट्, जो इस विशाल साम्राज्यपर शासन करता है, दक्षिण आफ्रिकामें तंगदिल गोरे उपनिवेशियोंके अपमानसे उनकी रक्षा नहीं कर सकता? उत्साहपूर्ण श्रोताओंकी ओरसे तत्काल दृढ़ उत्तर मिलता था—'नहीं'।

गांधीजी तथा श्री अलीने भारतीय श्रोताओंको विश्वास दिलाया कि वे इंग्लैंडसे यह दढ़ धारणा लेकर लौटे हैं कि यदि किसी भी उचित एवं न्यायपूर्ण शिकायतको नरमीके साथ