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शिक्षा अधीक्षककी रिपोर्ट

इंग्लैंडके शासकोंके सामने रखा जाये तो वह अनसुनी नहीं रहेगी। और अन्तमें समाजके सदस्योंसे सरकार के उचित और अनुचित सभी प्रकारके कानन तथा उपनियम पालन करनेको तथा अच्छे नागरिक बननेको कहा, क्योंकि इसीमें उनकी मुक्ति है। उन्हें अपने गोरे पड़ोसियों को यह यकीन दिलाना होगा कि उनकी उपस्थिति उपनिवेशके लिए अलाभकर नहीं है; और उन्हें यूरोपीय उपनिवेशियोंके साथ, जिनका प्रधान प्रजाति होनेके कारण सदैव आदर करना चाहिए, मिलकर काम करना होगा।

[अंग्रेजीसे]
नेटाल मर्क्युरी, ८-१-१९०७
 

२९८. शिक्षा अधीक्षकको रिपोर्ट

सरकारी शिक्षा विभागके मुख्य अधिकारीने जो रिपोर्ट प्रकाशित की है उसमें बताया गया है कि शिक्षाका जो भी काम किया जा रहा है वह केवल सरकारके खर्चपर होता है। भारतीय समाज कुछ भी नहीं करता। यह उलाहना गैरवाजिब और वाजिब दोनों प्रकारका है। भारतीय समाज अमगेनीका मदरसा चलाता है, दो-एक निजी पाठशालाएँ चलाता है और कभी-कभी भारतीयोंकी शिक्षाके लिए थोड़ी-बहुत सहायता दिया करता है। इससे प्रकट होता है कि अधीक्षक-(सुपरिटेंडेंट) के आरोपको हम लोग ज्योंका-त्यों स्वीकार नहीं कर सकते। किन्तु यह आरोप बहुत कुछ उचित है। इसे प्रत्येक भारतीयको लज्जाके साथ स्वीकार करना पड़ेगा। यदि हममें भारी उत्साह हो तो वर्तमान शालाओंसे भी बहुत अधिक काम हो सकता है। हमारी निश्चित राय है कि जिस तरह हर मदरसे में अरबीकी शिक्षा दी जानी चाहिए उसी तरह अंग्रेजी, गुजराती अथवा अन्य भारतीय भाषाओंकी लोकोपयोगी शिक्षा भी दी जानी चाहिए। फिर, अरबीकी शिक्षा अधिकतर केवल तोता-रटन्त होती है, यानी बिना अर्थ समझे। इस विषयमें मुसलमान भाइयोंको हमारी सलाह है कि वे मिस्रका उदाहरण देखें। वहाँ बचपनसे अरबीमें शिक्षा दी जाती है, किन्तु अर्थके साथ, इसलिए सब लोग अरबी भाषा बोल सकते हैं और बचपनसे जो पढ़ते हैं वह समझ सकते हैं। इसी प्रकार दूसरी शिक्षा मिस्रके मदरसोंमें दी जाती है। किन्तु यह सुधार यदि प्रत्येक भारतीय मदरसेमें हो जाये, तो सहज ही बहुतेरे मुसलमान बालक साधारण शिक्षा ले सकेंगे। इस विषय में यह स्वीकार करना ही होगा कि नेता लोग पीछे रहे हैं।

मदरसोंके अतिरिक्त जो कुछ है वह इतना कम है और इस विषय में सारा भारतीय समाज इतनी गफलत में रहा है कि उसके लिए जितना उलाहना दिया जाये वह हमें बर्दाश्त ही करना होगा। सरकार शिक्षा नहीं देती, यह कहकर अपना दोष दूसरेपर डालना हमें शोभा नहीं देता। जिस प्रकार सरकार शिक्षा देनेके लिए बँधी हुई है उसी प्रकार हम भी बँधे हुए हैं। सरकार यदि अपना कर्त्तव्य भूल जाती है तो हम भी भूल जायें, यह नहीं हो सकता। उलटे, सरकार यदि शिक्षा न दे तो भारतीय समाजका उत्तरदायित्व दुगना हो जाता हैं। इसलिए हमें खेदपूर्वक कहना चाहिए कि उपर्युक्त आरोप बहुत ही वाजिब है।