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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


हम जानते हैं कि इस प्रकार आलोचना करना सरल है किन्तु उपाय बताना और उसे अमल में लाना कठिन है। फिर भी हम गुनहगार हैं, इतना स्वीकार करके ही आगे बढ़ सकेंगे। उपाय करने में तीन बातोंकी आवश्यकता है। एक तो मकान और उनके लिए आवश्यक दूसरे साधन। इसमें वे ही लोग मुख्य काम कर सकते हैं जो पैसे टकेसे सुखी हों।

दूसरा उपाय यह है : जिस तरह पैसेवाले लोगोंका कर्त्तव्य पैसा देना है, उसी तरह सुशिक्षित भारतीयोंको चाहिए कि वे समाजको अपना ज्ञान मुफ्त या लगभग मुफ्त दें। शिक्षाका उद्देश्य पैसा कमाना नहीं है। रोमन कैथोलिक लोग शिक्षाके कार्य में दुनियामें सबसे आगे बढ़े हुए हैं, सो सिर्फ इसीलिए कि उन लोगोंने शुरूसे निर्णय कर रखा है कि शिक्षा देनेवालोंको केवल निर्वाहभर के लिए लेकर शिक्षा देनी चाहिए। फिर, वे लोग बड़ी आयुके और अविवाहित होते हैं, इसलिए अपना सारा समय उसी काममें लगा सकते हैं। हम इस हद तक पहुँच सकें या नहीं, इसमें कोई शक नहीं कि हमें उनके उदाहरणसे सबक लेना चाहिए। जिन्होंने थोड़ी-बहुत भी शिक्षा प्राप्त की है उन्हें इसपर विचार करना चाहिए। शिक्षित व्यक्ति बिना अधिक कष्ट उठाये सुगमतासे सहायता कर सकते हैं, इसपर हम फिर ब्यौरेवार विचार करेंगे।[१]

तीसरा उपाय माँ-बापके हाथ है। हममें यदि माता-पिताओंको बच्चोंकी शिक्षाका शौक होता तो उपर्युक्त दोनों उपाय अपने आप सुलभ हो जाते और माता-पिता, चाहे जिस तरह भी, अपनी सन्तानको शिक्षा देनेका प्रबन्ध करते। इस विषयमें भारतीय माता-पिता पिछड़े हुए हैं। यह हमें नीचा दिखानेवाली बात है। एक भी जमाना ऐसा देखने में नहीं आता जब अशिक्षित जनता खुशहाल बनी हो। केवल इसी जमाने में शिक्षाकी आवश्यकता हो, सो बात नहीं। शिक्षाकी आवश्यकता तो सदा ही रही है। केवल रूप बदलता रहा है। आजकल जिस प्रकारकी शिक्षाके बिना काम चल ही नहीं सकता उसके बिना पहले चल सकता था। हम मानते हैं कि इस जमानेके जिस समाजने शिक्षा नहीं ली, वह अन्तमें पिछड़ जायेगा इतना ही नहीं, वह यदि नष्ट भी हो जाता है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। चाहे जो हो तो भी इतना तो निश्चित है कि हम लोग अधिकार प्राप्त करनेके लिए कितनी ही लड़ाई लड़ते रहें, यदि शिक्षामें पिछड़े हुए रहे तो किसी भी हालत में हमारी स्थिति जैसी होनी चाहिए वैसी नहीं हो पायेगी।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, ५–१–१९०७
  1. देखिए "शिक्षित भारतीयोंका कर्त्तव्य", पृष्ठ ३०६।