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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
 

हम केवल इतना ही चाहते हैं कि ट्रान्सवालमें बसे ब्रिटिश भारतीयोंके साथ उचित और सम्मान्य व्यवहार किया जाये। ब्रिटिश सरकारने अक्सर इसका वादा भी किया है। जैसा कि लॉर्ड लैंसडाउनने कहा, सच तो यह है कि गत युद्धका एक कारण ट्रान्सवालमें ब्रिटिश भारतीयों की निर्योग्यताएँ थीं।

[अंग्रेजीसे]
ट्रिब्यून, २२-१०-१९०६

 

२. भेंट : 'मॉर्निंग लीडर' को[१]

[ अक्तूबर २०, १९०६]

श्री गांधीने [वाटरलू स्टेशनपर] 'मॉर्निंग लीडर' के प्रतिनिधिसे बातचीत के दौरान यह दावा किया कि युद्धसे भारतीयोंको राहत मिलना तो दूर, उनकी स्थिति अब बोअर शासनकालसे भी बदतर हो गई है।

बोअरोंने ब्रिटिश भारतीयोंको केवल नागरिक अधिकारों और भूस्वामित्वसे वंचित किया था और १८८५ का कानून [३] बनाया था जिसके अन्तर्गत उनमें से जो व्यापारियोंकी हैसियतसे इस देशमें बसना चाहते थे, उन्हें पंजीयन कराना और ३ पौंड शुल्क देना पड़ता था। अंग्रेजी शासनके अन्तर्गत यद्यपि काफिर जमीनका मालिक हो सकता है, किन्तु हम अभीतक हमारे लिए विशेष रूपसे निर्धारित बस्तियों या बाड़ोंको छोड़कर, इस सुविधासे वंचित हैं। इसमें विचार यहूदी गुलामीकी पद्धतिको पुनर्जीवित करनेका है।

अतिरिक्त निर्योग्यताएँ

फिर अन्य निर्योग्यताएँ भी लाद दी गई हैं। उदाहरणार्थ, ट्रामगाड़ियों में यात्रासे सम्बन्धित कठिनाइयाँ। जोहानिसबर्ग में ब्रिटिश भारतीय केवल पिछलग्गू डिब्बोंमें बैठ सकते हैं। प्रिटोरियामें तो उनको ट्राममें यात्रा करने ही नहीं दी जाती। तथापि हमें क्षोभ विशेषतः पंजीयनके प्रश्नपर होता है। बोअरोंके शासनकाल में ब्रिटिश भारतीयोंका प्रवास बिलकुल मुक्त और प्रतिबन्ध-रहित था। किन्तु आज भारतीय केवल देशमें आनेसे ही नहीं रोके जाते, बल्कि पुराने अधिवासियोंको भी फिरसे दाखिल होनेमें कठिनाई होती है।

यह ठीक है कि बोअरों द्वारा पास किये गये १८८५ के कानून ३ के अन्तर्गत व्यापारके उद्देश्यसे बसनेवाले भारतीयोंको अपना पंजीयन कराना पड़ता था। किन्तु अब विधान परिषदने एशियाई कानून संशोधन अध्यादेश नामक एक संशोधक कानून बनाया है; ब्रिटिश भारतीयोंका दावा है कि संशोधन अध्यादेश जिस कानूनका संशोधन करना चाहता है उससे बदतर है। इसी नवीन वैधानिक कृतिके सम्बन्धमें शिष्टमण्डल लन्दन आया हुआ है।

  1. यह विवरण २६-१०-१९०६ के इंडियामें और १-१२-१९०६ के इंडियन ओपिनियन में उद्धृत किया गया था।