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३०५. उचित सुझाव

केप टाउनका 'केप आरगस' एशियाई अध्यादेशके सम्बन्धमें आलोचना करते हुए लिखता है कि समस्त दक्षिण आफ्रिकामें भारतीय समस्याका निपटारा करनेके लिए दक्षिण आफ्रिकाकी भिन्न-भिन्न सरकारोंको भारतीय नेताओंके साथ परामर्श करना चाहिए और इस प्रकार समस्याका समाधान करना चाहिए।[१] 'केप आरगस' यह भी लिखता है कि यदि ऐसा नहीं किया गया तो ब्रिटेन और भारत दोनोंको हानि पहुँच सकती है। यह सुझाव अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है और इस प्रकारका सुझाव अंग्रेजी अखबारने पहली ही बार दिया है। यदि पूरे कारगर उपाय काममें लाये जायें तो सम्भवतः वैसा हो सकता है । इस सुझावसे यह पता चलता है कि एशियाई अध्यादेशके रद हो जानेसे दक्षिण आफ्रिकामें गोरोंके मनपर बहुत प्रभाव पड़ा है । इस सम्बन्धमें अपनी अंग्रेजी टिप्पणीमें हमने अधिक विवेचन किया है और आशा की जा सकती है कि उससे कुछ अच्छा नतीजा निकलेगा ।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, ५-१-१९०७
 

३०६. नीतिधर्म अथवा धर्मनीति[२]—१
भूमिका

इस विषयपर अपने 'ओपिनियन' के पाठकों के लिए हम कुछ समय तक कुछ लिखना चाहते हैं। आजकल दुनियामें पाखण्ड बढ़ गया है। किसी भी धर्मका मनुष्य क्यों न हो, वह

  1. न्सवाल एशियाई अधिनियम संशोधन अध्यादेशके स्थगित किये जानेसे जो स्थिति पैदा हुई थी उसपर टीका करते हुए केप आरगसने लिखा था : "हम चाहेंगे कि हर जगह स्थानीय सरकार भारतीय समाजके नेताओंसे सलाह ले। किन्तु इन लोगोंसे यह साफ कह दिया जाना चाहिए कि वे गोरे उपनवेशियोंसे यह अपेक्षा न रखें कि वे खड़े-खड़े देखते रहें और उनके देखते-देखते भारतीयोंकी बादसे सारे समाजका स्वरूप ही बदल जाये। फिर भी कुछ-न-कुछ नियमन तो मान लेना चाहिए ही जिससे यहाँ रहनेवाले भारतीयोंको जो अनुचित कष्ट भोगने पड़ते हैं, वे न भोगने पड़े। ऐसे किसी समझौते के द्वारा ही हम इस संघर्ष से बच सकते हैं जिसमें न अंग्रेजोंका हित है, न भारतीयोंका।" इसपर टीका करते हुए ५-१-१९०७ के 'इंडियन ओपिनियन' ने अपने अंग्रेजी विभागमें इसे "बुद्धिमत्तापूर्ण सुझाव" कहा था और लिखा था कि "दक्षिण आफ्रिकाके ब्रिटिश भारतीयोंने रंगभेदसे मुक्त नीतिके आधारपर भारतीय भानजनपर पाबन्दी लगानेके सिद्धान्तको [सदा] स्वीकार किया है।"
  2. इसमें तथा बादके सात लेखों में गांधीजीने शिकागोके नैतिक संस्कृति संघके संस्थापक विलियम मैं किंटायर सॉल्टरके 'एथिकल रिलीजन' का स्वतंत्ररूपसे गुजराती सारानुवाद दिया था। यह पुस्तक रैशनल प्रेस असोसिएशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक-मालामें से एक थी। इसका प्रथम प्रकाशन अमेरिकामें १८८९ के मार्चमें हुआ था और फिर १९०५ में यह इंगलैंडमें प्रकाशित की गई थी। गुजराती मालामें गांधीजीने पन्द्रहमें से आठका सार प्रस्तुत किया था।

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