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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अपने धर्मके बाहरी रूपका ही विचार करता है और अपने सच्चे कर्तव्यको भुला देता है। धनका अत्यधिक उपभोग करने से दूसरे लोगोंको क्या कष्ट होते हैं या होंगे इस बातका विचार हम क्वचित् ही करते हैं। अत्यन्त मृदुल और नन्हें-नन्हें प्राणियोंको मारकर यदि उनकी खालके कोमल दस्ताने बनाये जा सकें तो ऐसे दस्ताने पहनने में यूरोपकी महिलाओंको जरा भी हिचक नहीं होती। श्री रॉकफेलर दुनियाके धन-कुबेरोंमें प्रथम श्रेणीके गिने जाते हैं। उन्होंने अपना धन इकट्ठा करनेमें नीतिके अनेक नियमोंको भंग किया है, यह जगत्-प्रसिद्ध है। चारों ओर इस तरह की हालत देखकर यूरोप तथा अमरीकामें बहुतेरे लोग धर्मके विरोधी हो गये हैं। उनका कहना है कि दुनियामें यदि धर्म नामकी कोई चीज होती, तो यह जो दुराचरण बढ़ गया है वह बढ़ना नहीं चाहिए था। यह खयाल भूलसे भरा हुआ है। मनुष्य अपनी हमेशाकी आदतके अनुसार अपना दोष न देखकर साधनोंको दोष देता है। ठीक इसी तरह मनुष्य अपनी दुष्टताका विचार न करके धर्मको ही बुरा मानकर स्वच्छन्दतापूर्वक जीमें आये वैसा व्यवहार करता है और रहता है।

यह देखकर अभी-अभी अमेरिका तथा यूरोपमें अनेक लोग सामने आये हैं। उन्हें भय है कि इस तरह धर्मका नाश होनेसे दुनियाका बहुत नुकसान होगा और लोग नीतिका रास्ता छोड़ देंगे। इसलिए वे लोगोंको भिन्न-भिन्न मार्गोंसे नैतिकताकी ओर प्रवृत्त करनेकी शोध में लगे हैं।

एक ऐसे संघकी[१] स्थापना हुई है जिसने विभिन्न धर्मोंकी छानबीन करके यह तथ्य प्रस्तुत किया है कि सारे धर्म नीतिकी ही शिक्षा देते हैं, इतना ही नहीं सारे धर्म बहुत कुछ नीतिके नियमोंपर ही टिके हुए हैं। और लोग किसी धर्मको मानें या न मानें फिर भी नीतिके नियमों का पालन करना तो उनका फर्ज है। और यदि उनसे नीतिके नियमोंका पालन नहीं किया जा सकता तो वे इस लोक या परलोकमें अपना या दूसरोंका भला नहीं कर सकेंगे। जो पाखण्डपूर्ण मत-मतान्तरोंके कारण धर्म मात्रको तिरस्कारकी नजरसे देखते हैं ऐसे लोगोंका समाधान करना इन संघोंका उद्देश्य है। ये सब धर्मोंका सार लेकर उसमें से केवल नीति विषयोंकी ही चर्चा करते हैं, उसी सम्बन्ध में लिखते हैं और तदनुसार स्वयं व्यवहार करते हैं। अपने इस मतको वे 'नीति धर्म' या "एथिकल रिलीजन" कहते हैं। किसी भी धर्मका खण्डन करना इन संघोंका काम नहीं है। इन संघोंमें किसी भी धर्मका माननेवाला दाखिल हो सकता है और होता है। इन संघोंसे लाभ यह होता है कि इस तरहके लोग अपने धर्मका दृढ़तासे पालन करने लगते हैं और उसकी नीति-शिक्षाओं पर अधिक ध्यान देने लगते हैं। इस संघके सदस्योंकी यह दृढ़ मान्यता है कि मनुष्यको नीति-धर्मका पालन करना ही चाहिए, क्योंकि यदि ऐसा नहीं हुआ तो दुनियाकी व्यवस्था टूट जायेगी और अन्तमें भारी नुकसान होगा।

श्री सॉल्टर अमेरिकाके एक विद्वान सज्जन हैं। उन्होंने एक पुस्तक प्रकाशित की है। वह पुस्तक बड़ी खूबीसे भरी है। उसमें धर्मकी चर्चा नामको भी नहीं है। परन्तु उसकी शिक्षा सभी लोगोंपर लागू हो सकती है। उसी पुस्तकका सारांश हम प्रति सप्ताह देना चाहते हैं। इस पुस्तक-लेखक के सम्बन्ध में इतना कहना ही आवश्यक है कि वे जितना करने की सलाह

  1. शिकागोका नैतिक संस्कृति संघ—जिसकी स्थापना श्री सॉल्टरने १८८५ के आसपास की थी।