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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
आकर बसनेकी आशा करते हों तो वह अनुचित है। ऐसे लोग हमारे साथ स्पर्धा करें यह उचित नहीं माना जायेगा। अतः उन्हें ऐसा करनेसे रोकने के लिए हमें समुचित उपाय करना चाहिए। आज हालत यह है कि जोहानिसबर्ग में ५,००० परवाने जारी हुए हैं। उनमें दस प्रतिशत एशियाइयोंके हैं : यानी २७० भारतीय तथा २५५ चीनी परवाने हैं। ऐसा होना नहीं चाहिए। ये दूकानें बन्द होनी चाहिए। दुकानदारोंको मुआवजा दे दिया जाना चाहिए। ब्रिटिश सरकारने उपर्युक्त कानून नामंजूर कर दिया क्योंकि उसे हमारी स्थिति और हमारी भावनाओंका पता नहीं है। मैं नहीं मानता कि ब्रिटिश सरकार हमारा नुकसान करना चाहती है। उसने दुखियोंका साथ दिया है और यदि इसीलिए उसने इस कानूनको स्वीकार करनेसे इनकार कर दिया हो तो जब ट्रान्सवाल संसद्की बैठक होगी और उसमें सर्वसम्मति से यह कानून पास किया जायेगा तब ब्रिटिश सरकार उसे मंजूर करनेमें आनाकानी नहीं करेगी।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, १२-१-१९०७

 

३१२. नीतिधर्म अथवा धर्मनीति—२
उत्तम नीति

नीति विषयक प्रचलित विचार वजनदार नहीं कहे जा सकते। कुछ लोग यों मानते हैं कि नीतिकी बहुत आवश्यकता नहीं है। फिर कुछ लोगोंका कहना है कि धर्म और नीतिमें कोई सम्बन्ध नहीं है। पर दुनियाके धर्मोंका परीक्षण किया जाये तो दीख पड़ेगा कि नीतिके बिना धर्म टिक नहीं सकता। सच्ची नीतिमें धर्मका बहुत-कुछ समावेश हो जाता है। जो लोग अपने स्वार्थके लिए नहीं, बल्कि नीतिके लिए ही नीति-नियमोंका पालन करते हैं उन्हें धार्मिक कहा जा सकता है। रूसमें ऐसे लोग हैं जो अपने देशके लिए अपना जीवन अर्पण कर देते हैं। ऐसे लोगों को सच्चा नीतिमान मानना चाहिए। जेरेमी बेन्थमको, जिन्होंने इंग्लैंडके लिए कानूनकी अनेक सुन्दर धाराओंकी शोध की, जिन्होंने अंग्रेज जनतामें शिक्षा प्रसारके लिए विकट प्रयास किया और जिन्होंने कैदियोंकी स्थिति सुधारनेकी दिशामें जबरदस्त हाथ बँटाया, नीतिनिष्ठ माना जा सकता है।

इसके अलावा, सच्ची नीतिका नियम यह है कि उसमें हमारे लिए अपने परिचित मार्गपर चलना ही बस नहीं, बल्कि जिस मार्गको हम सच्चा समझते हैं, उससे हम परिचित हों या न हों, फिर भी उसपर हमें चलना चाहिए। मतलब यह कि जब हम जानते हों कि अमुक मार्ग सही है तब हमें निर्भयताके साथ संकल्पपूर्वक उसमें कूद पड़ना चाहिए। नीतिका इस तरह पालन किया जाये तभी हम आगे बढ़ सकते हैं। यही कारण है कि नैतिकता, सच्ची सभ्यता और सच्ची उन्नति ये तीनों सदा एक साथ दिखाई देती हैं।

अपनी इच्छाओंका परीक्षण करनेपर भी हम पायेंगे कि जो वस्तु हमारे पास होती है उसे लेनेकी आकांक्षा नहीं रहती। जो वस्तु हमारे पास नहीं होती उसकी कीमत हम सदैव ज्यादा आँकते हैं। परन्तु इच्छा दो प्रकारकी होती है। एक तो अपना निजी स्वार्थ साधनेकी,