पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 6.pdf/३३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३०२
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

और मस्तिष्कका उपयोग नहीं करता और बाढ़के पानीमें लकड़ीकी तरह बहता रहता है, वह नीतिको कैसे समझेगा? कभी-कभी मनुष्य परम्परासे विमुख होकर परमार्थकी इच्छासे कर्म करता है। महावीर वेण्डल फिलिप्स[१] ऐसे ही पुरुष थे। लोगोंके सन्मुख भाषण देते हुए उन्होंने एक बार कहा था, "जबतक आप लोग स्वयं विचार करना और उन्हें व्यक्त करना नहीं सीख लेते, तबतक मुझे इसकी चिन्ता नहीं है कि मेरे विषयमें आपके विचार क्या हैं।" इस प्रकार जब हम सबको इसीकी चिन्ता रहे कि हमारा अन्तर क्या कहता है, तब समझना चाहिए कि हम नीतिकी सीढ़ीपर पहुँच गये हैं। परन्तु यह स्थिति हमें तबतक नहीं प्राप्त होती जबतक हम यह नहीं मान लेते और अनुभव नहीं करते कि सबके अन्तरमें निवास करनेवाला परमेश्वर हमारे सारे कार्योंका साक्षी है।

केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है कि इस प्रकार किया हुआ काम अपने आपमें अच्छा हो, बल्कि वह हमारे द्वारा अच्छा करने के इरादेसे किया जाना चाहिए। मतलब यह कि अमुक कार्यमें नैतिकता है या नहीं यह कर्त्ताके इरादेपर निर्भर है। दो मनुष्योंने एक ही कार्य किया हो, तथापि एकका काम नीतियुक्त और दूसरेका नीतिरहित हो सकता है। जैसे, एक मनुष्य दयासे प्रेरित हो गरीबोंको भोजन देता है, दूसरा सम्मान पानेके लिए अथवा ऐसी ही किसी स्वार्थपूर्ण भावनासे वही कार्य करता है। दोनों कार्य एक जैसे ही हैं, तो भी पहलेका किया हुआ काम नीतियुक्त माना जायेगा और दूसरेका नीतिरहित। यहाँ पाठकको नीति-रहित और नीतियुक्त इन दो शब्दोंके बीचका भेद स्मरण रखना है। ऐसा भी हो सकता है कि नैतिक कार्यका परिणाम सदा अच्छा होता नहीं दीखता। हमें नीतिके सम्बन्धमें विचार करते हुए इतना भर देखना है कि किया गया काम शुभ है और शुद्ध इरादेसे किया गया है। उसके परिणामपर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है। फलदाता तो एकमात्र परमेश्वर है। सम्राट् सिकन्दरको इतिहास—वेत्ताओंने महान माना है। वह जहाँ-जहाँ गया, वहाँ-वहाँ उसने यूनानकी शिक्षा, कला, रीतिरिवाज आदि दाखिल किये और उसका फल हम आज भी स्वादसे चखते हैं। पर इतना सब करने में सिकंदरका हेतु महान बनना और विजय पाना था। अतः उसके कार्यों में नैतिकता थी ऐसा कौन कह सकेगा? भले ही वह महान कहलाया, परन्तु उसे नीतिमान नहीं कहा जा सकता।

ऊपर व्यक्त किये विचारोंसे सिद्ध होता है कि नैतिक कार्य शुद्ध हेतुसे किया जाये, इतना ही बस नहीं है, वह बिना दबावके भी किया जाना चाहिए। अपने दफ्तरमें समयपर न पहुँचनेसे मैं अपनी नौकरी खो बैठूँगा, इस भयसे यदि मैं बड़े सवेरे उठूं तो उसमें किसी प्रकारकी नैतिकता नहीं है। इसी प्रकार अपने पास दौलत न होनेके कारण मैं गरीबी तथा सादगीसे रहूँ तो इसमें भी नीतिका समावेश नहीं होता। पर यदि धनवान होते हुए भी मैं यह सोचूँ कि जब मेरे आसपास दरिद्रता और दुःख दिखाई दे रहा है, इस स्थितिमें मैं ऐश-आराम किस प्रकार भोग सकता हूँ, मुझे भी गरीबी और सादगी ही से जीवन बिताना चाहिए, तो इस प्रकार अपनाई गई सादगी नीतिमय मानी जायेगी। इसी तरह नौकरोंके प्रति इस भयसे कि कहीं वे भाग न जायें—हमदर्दी दिखाने में या उन्हें अच्छा और अधिक वेतन देने में भी नीति नहीं होगी, यह तो निरी स्वार्थबुद्धि है। यदि मैं उनका हित चाहूँ और यह मानकर कि मेरी समृद्धिमें उनका हिस्सा है, उन्हें अच्छी तरह रखूं तो उसमें नीति हो सकती

  1. (१८११-८४); अमेरिकाके प्रसिद्ध वक्ता, समाजसुधारक और नीम्रो दासता उन्मूलनके समर्थक।