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पत्र: 'टाइम्स' को

वे पंजीयन प्रमाणपत्र भी हैं, जो उन्होंने लॉर्ड मिलनरकी सलाहपर स्वेच्छापूर्वक लिये थे। लॉर्ड मिलनरने उस समय उन्हें आश्वासन दिया था कि वे पंजीयन प्रमाणपत्र अन्तिम और सम्पूर्ण हैं।[१]

यह कहना कि एशियाई अप्रिय पंजीयन शुल्कसे बरी कर दिये जायेंगे एक असंगत वक्तव्य है, क्योंकि यह शुल्क तो वे बोअर या अंग्रेज सरकारको दे ही चुके हैं। जैसा कि आपके संवाददाताका कथन है, उन्हें जमीन अथवा मसजिदोंपर स्वामित्वके अधिकार नहीं दिये जायेंगे। शायद उनके मनमें मसविदा रूप वह अध्यादेश है जिसमें एक धारा ऐसी थी जिसके अनुसार सरकार ब्रिटिश भारतीयोंको अपनी मसजिदों या पूजन-स्थलोंपर स्वामित्वके हक दे सकती थी किन्तु मसजिदके अहातोंसे अलग उनकी जमीनपर नहीं। परन्तु अब यह धारा अध्यादेशके उस रूपमें नहीं है जिस रूपमें उसे विधान परिषदने पास किया है; और यह आवश्यक भी नहीं था क्योंकि ट्रान्सवालके सर्वोच्च न्यायालयने फैसला दे दिया है कि १८८५ के कानून ३ के बावजूद धार्मिक सहकार संस्थाओंकी तरह काम करनेवाले भारतीय धार्मिक कामोंके लिए स्थावर सम्पत्ति रख सकते हैं। ब्रिटिश भारतीयोंने ट्रान्सवालमें निर्बाध आव्रजनका दावा कभी सपनेमें भी नहीं किया। वे ऐसे किसी भी आव्रजनके खिलाफ तमाम पूर्वग्रहोंको तसलीम करते हैं और इसलिए उन्होंने केप, नेटाल या दूसरे ब्रिटिश उपनिवेशों में प्रचलित प्रतिबन्धके सिद्धान्तको स्वीकार किया है।

ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीय विनम्र भावसे किन्तु दृढ़तापूर्वक अध्यादेशका विरोध करते हैं क्योंकि वह उनपर मनमाना, अनावश्यक और अन्यायपूर्ण अपमान थोपता है। वह उनका दर्जा काफिरोंसे भी नीचा कर देता है। वह पासों और शिनाख्तगीकी ऐसी पद्धति रूढ़ करता है जो केवल जरायमपेशा लोगोंपर ही लागू की जा सकती है। क्या यह ठीक है कि हर भारतीयको, चाहे उसका दर्जा जो हो, अपनी दसों अँगुलियोंकी छापवाला पास साथ रखने और ऐसे हर सिपाहीके सामने, जो उसे देखना चाहे, पेश करनेके लिए बाध्य किया जाये? क्या यह ठीक है कि दुधमुँहे बच्चोंको एशियाई पंजीयक नामक किसी अफसरके सामने ले जाया जाये ताकि उसे बच्चेकी शिनाख्तसे सम्बन्धित तफसीलें दी जा सकें और आरजी तौरपर उसका पंजीयन कराया जा सके?

जब कि १८८५ के कानून ३ के मुताबिक केवल व्यापारियोंका पंजीयन जरूरी है और उसके अन्तर्गत ३ पौंडकी रसीद ही पंजीयन प्रमाणपत्र है, वर्तमान कानून के मुताबिक उपनिवेशके सभी पुरुष भारतीयोंको उक्त प्रकारका पंजीयन कराना जरूरी है।

यह वक्तव्य झूठा है कि इस पत्रपर हस्ताक्षर करनेवाले व्यक्तियोंमें से पहलेने प्रमुख रूपसे भारतीयोंको ट्रान्सवालमें आनेके अनुमतिपत्र दिलाये हैं और विगत समयमें उसने इसके बलपर बड़ा व्यापार जमाया है। जब पहले हस्ताक्षरकर्ताको ट्रान्सवालमें बसनेकी जरूरत पड़ी तब भारतीय शरणार्थी बड़ी संख्यामें वहाँ आ चुके थे।[२]

आपके संवाददाता द्वारा कही गई व्यक्तिगत बातोंकी चर्चा अनावश्यक है। मुझे लगता है कि ब्रिटिश भारतीय समाजको बहुत गलत ढंगसे समझा और पेश किया गया है।

  1. देखिए, खण्ड ३, पृष्ठ ३२४-३१ ।
  2. यह १९०३ के आरम्भकी बात है; देखिए खण्ड ३, पृष्ठ ५०९।