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३२७. पत्र : छगनलाल गांधीको

[जोहानिसबर्ग]
जनवरी २८, १९०७

चि॰ छगनलाल,

तुम्हारा पत्र मिला।

सामग्री बहुत-सी रह गई है। इसलिए श्रीमती बेसेंटवाला लेख[१] भले ही अगले हफ्ते जाये। जब भी दो, एक बारमें ही पूरा देना जरूरी है। दो हफ्तेकी ढील चल सकती है।

अमीर सम्बन्धी लेख[२] इस बार पूरा जाये तो ठीक।

तुम्हारा बोझ कम होना चाहिए, यह ठीक बात है। मुतुको रख लो। इस पत्रकी पहुँच के पहले उसे रख लिया हो, तो भी ठीक है।

वसूली और हिसाबके ऊपर बेशक पूरा ध्यान देनेका यह समय है। ग्राहकोंको सन्तोष देना ही चाहिए। लोग सामग्रीमें रस लेने लगे हैं। इस समय यदि उन्हें निराशा हुई, तो हम उन्हें नहीं निभा सकेंगे। उन्हें सन्तोष देनेकी जितनी जरूरत है, उतनी ही वसूलीकी भी जरूरत है। इसलिए मैं यह समझ सकता हूँ कि हिसाबपर तुम्हारा बहुत ध्यान होना चाहिए।

उपर्युक्त कारणसे यदि ठक्करको तरक्की देकर रखनेका इरादा किया हो, तो ठीक जान पड़ता है। उसपर अंकुश रखनेसे उसकी कमी दूर हो सकेगी।

तलपट कबतक तैयार हो सकता है?

सेठ हाजी हबीबका मसजिदका विज्ञापन वापस भेज रहा हूँ। उन्हें मैंने पत्र लिखा है। उनसे पौंड ६-१०-० प्राप्त हो गये हैं, यह तुम्हारे ध्यानमें होगा। उनको रकम जमा करनेका पर्चा भेज दिया गया है।

आज दूसरी कुछ सामग्री भेज रहा हूँ। ताजी सामग्रीको तो बचाना ही मत।

मैं समझता हूँ कि विलायत जानेका खर्च छापाखानेपर रहे, तो भी फिलहाल मुझे कर्ज उठाना पड़ेगा, किन्तु उसका बोझ आखिरकार छापाखानेपर ही होना चाहिए। मेरा विचार इस तरह है।

रोज-रोज छापाखाना बढ़ रहा है। जैसे-जैसे हमारे हेतुओंकी निर्मलता प्रकट होती जायेगी और उनका विकास होगा, वैसे-वैसे छापाखानेका काम बढ़ेगा श। निर्मलताके साथ कुशलता रहेगी, तो हम बहुत कुछ कर सकेंगे, लेकिन लोभ अथवा स्वार्थमें नहीं पड़ेंगे तो। इसलिए कोई भी १० पौंडसे अथवा जो अन्तिम सीमा हम बाँध दें, उससे अधिक न ले सके, ऐसा

  1. देखिए पिछला शीर्षक।
  2. देखिए "अमीरकी अमीरी," पृष्ठ २९८-९९।