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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

नई बात नहीं है। अभी-अभी यदि कोई कानून बनाये गये हों तो अभी 'गज़ट' में प्रकाशित नहीं हुए हैं। इसलिए वाणिज्यदूतने सूचित किया है कि ट्रान्सवालसे भारतीयोंके जाने में कोई आपत्ति नहीं है। तकलीफकी जो शिकायत सुनने में आई थी सो यह थी कि जिस भारतीयके पास नेटालके समान ही डेलागोआ-बेका पास न हो उसे डेलागोआ बेकी सीमापर ही रोक दिया जाता है। वाणिज्यदूतके साथ और भी लिखा-पढ़ी चल रही है। सम्भव है ब्यौरेवार दूसरा जवाब और आयेगा।

पूर्व भारत संघ

'ट्रान्सवाल लीडर' में आज विलायतका एक तार छपा है। उसमें बताया गया है कि पूर्व भारत संघकी जो वार्षिक बैठक हुई उसके अध्यक्ष सर रेमंड वेस्ट थे। उसमें एक भाषणकर्ता ने कहा था कि जमैका वगैरहमें भारतीयोंको तकलीफ नहीं है। कारण यह है कि वहाँके गोरे अच्छे कुटुम्बोंके और इज्जतदार लोग हैं। यदि भारतीय अच्छे, होशियार और निर्व्यसनी हों तो वे वहाँ अच्छी कमाई कर सकते हैं। इसपर टीका करते हुए रेमंड वेस्टने कहा कि दक्षिण आफ्रिकामें गोरे भारतीयोंके विरुद्ध हैं, इसका कारण यह है कि वहाँ भारतीयोंकी प्रतिस्पर्धा गोरोंको बाधा पहुँचाती है। इसलिए जमैका और दक्षिण आफ्रिकाके बीच मुकाबला नहीं किया जा सकता। सर रेमंडने आखिरमें कहा कि दक्षिण आफ्रिकामें भारतीयोंकी तकलीफें दूर करनेका एक ही उपाय हो सकता है, सो यह कि प्रत्येक भारतीय आवश्यक शिक्षा प्राप्त करे। इस विचारसे सर रेमंड हमें सलाह देते हैं कि यदि हममें शिक्षा होगी तो गोरोंको हमसे कम आपत्ति होगी; क्योंकि तब हम उनके रहन-सहनका अनुकरण करेंगे।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, २-२-१९०७
 

३३७. नीतिधर्म अथवा धर्मनीति—५
नीति में धर्म समा सकता है?

इस प्रकरणका विषय कुछ विचित्र माना जायेगा। सामान्य मान्यता यह है कि नीति और धर्म दो भिन्न विषय हैं। फिर भी इस प्रकरणका उद्देश्य नीतिको धर्म मानकर विचार करना है। इससे कोई-कोई पाठक ग्रंथकारको उलझन में पड़ा हुआ मानेंगे। यह आरोप वे दोनों पक्ष करेंगे जो यह मानते हैं कि नीतिमें धर्मका समावेश नहीं हो सकता और दूसरे, जिनकी मान्यता है कि जहाँ नीति है वहाँ धर्मकी आवश्यकता नहीं है। पर लेखकने यह दिखानेका निश्चय कर रखा है कि नीति और धर्मके बीच घनिष्ठ सम्बन्ध है। नीतिधर्म अथवा धर्मनीतिका प्रसार करनेवाले संगठन मानते हैं कि धर्मका निर्वाह नीतिके द्वारा होता है।

यह मानना होगा कि सर्वसामान्य दृष्टिसे नीतिके बिना धर्म हो सकता है और धर्मके विना नीति हो सकती है। ऐसे अनेक दुराचारी लोग दिखाई पड़ते हैं जो बुरे कर्म करते हुए भी धार्मिक होनेका पाखण्ड करते हैं। इसके विपरीत, स्वर्गीय ब्रेडलॉ जैसे नीतिपरायण