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नीतिधर्म अथवा धर्मनीति—५

लोग हैं जो अपनेको नास्तिक कहलाने में अभिमान मानते हैं और धर्मका नाम लेते ही भागते हैं। इन दोनों मतोंके लोग भूल करते हैं, और पहले मतवाले तो भ्रम में ही नहीं, धर्मके बहाने अनीतिका आचरण करके भयंकर हो जाते हैं। इसलिए इस प्रकरण में दिखायेंगे कि बुद्धिपूर्वक और शास्त्रोंके आधारपर विचार करें तो नीति और धर्म एक हैं और उन्हें एक ही रहना भी चाहिए।

पूर्वकालमें नीति केवल सांसारिक रीति थी। अर्थात्, मनुष्य यह सोचकर आचरण करता था कि समूहमें रहकर उसे कैसा आचरण करना चाहिए। यों करते-करते जो अच्छी रीति थी वह कायम रही और बुरी नष्ट हो गई। क्योंकि यदि बुरी रीति या अनीतिका नाश न हो तो तदनुसार चलनेवालोंका विनाश होता है। ऐसा होते हम आज भी देखते हैं। मनुष्य जाने-अनजाने अच्छे रिवाजोंको चालू रखता है। वह न नीति है, न धर्म है। फिर भी प्रायः दुनियामें नीतिमें खपने योग्य काम उपर्युक्त अच्छे रिवाज ही हैं।

इसके अलावा, मनुष्यके मनमें धर्मका विचार प्रायः ऊपर ही ऊपर रहता है। कभी-कभी हम अपनेपर आनेवाली आपत्तियोंसे बचने के लिए किये गये प्रयत्नको थोड़ा-बहुत धर्म मान लेते हैं। इस प्रकार भय प्रेरित प्रीतिके कारण किये गये मनुष्यके कामोंको धर्म मानना भूल है।

लेकिन अन्तमें ऐसा वक्त आता है जब मनुष्य इच्छापूर्वक, सोच समझकर, नुकसान हो या फायदा, मरे या जिये फिर भी दृढ़ निश्चयसे सर्वस्व बलिदानकी भावना लेकर पीछे देखे बिना चला जाता है। तब कहा जा सकता है कि उसपर सच्ची नीतिका रंग चढ़ा है।

ऐसी नीति धर्मके बिना कैसे निभ सकती है? दूसरेका थोड़ा-सा नुकसान करके यदि मैं अपना फायदा बनाये रख सकता हूँ तो मुझे वह नुकसान क्यों नहीं करना चाहिए? नुकसान करके प्राप्त किया हुआ लाभ लाभ नहीं, बल्कि नुकसान है, यह घूंट मेरे गले कैसे उतर सकता है? बिस्मार्कने जर्मनीको बाह्य लाभ पहुँचाने के लिए अनेक घोर कृत्य किये। तब उसकी शिक्षा कहाँ चली गई थी? मामूली समय में बच्चोंके सामने वह जिन नीतिवचनोंकी बकवास किया करता था वे वचन कहाँ खो गये? उनकी याद करके उसने नीतिका पालन क्यों नहीं किया? इन सारे सवालोंका जवाब स्पष्ट ही दिया जा सकता है। ये सारी बाधाएँ आईं और नीतिका पालन नहीं किया गया, इसका एकमात्र कारण यह है कि उस नीतिमें धर्मका समावेश नहीं था। जबतक नीतिरूपी बीजको धर्मरूपी जलका सिंचन नहीं मिलता, वह अंकुरित नहीं होता; और पानीके बिना यह बीज सूखा ही पड़ा रहता है और दीर्घ काल तक बिना पानीके पड़ा रहे तो नष्ट हो जाता है। इस तरह हम देखते हैं कि सच्ची नीतिमें सत्य धर्मका समावेश होना चाहिए। इसी विचारको दूसरे शब्दोंमें रखा जाये तो हम कह सकते हैं कि धर्मके बिना नीतिका निर्वाह नहीं किया जा सकता; अर्थात् नीतिका पालन धर्मके रूपमें किया जाना चाहिए।

हम फिर यह भी पाते हैं कि दुनियाके महान् धर्मोमें जो नीति-नियम लिखे गये हैं वे प्रायः एक-से ही हैं। इन धर्मोंके प्रचारकोंने यह भी कहा है कि धर्मकी नींव नीति है। यदि हम नींवको खोद डालें तो घर अपने-आप ढह जाता है, ठीक इसी प्रकार नीतिरूपी नींद टूट जाये तो धर्मरूपी महल एकदम धराशायी हो जायेगा।