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सम्पूर्ण गांधी वाङमय


ग्रंथकार यह भी कहता है कि यदि नीतिको धर्म कहा जाये तो कोई आपत्ति नहीं होगी। प्रार्थना करते हुए डॉक्टर कोट कहते हैं, "हे खुदा! नीतिको छोड़कर मुझे किसी दूसरे खुदाकी आवश्यकता नहीं है।" विचार करनेपर हम देखेंगे कि हम मुखसे खुदा या ईश्वरकी रट लगायें और बगल में खंजर रखें तो खुदा या ईश्वर हमारी कोई सुनवाई नहीं करेगा। एक मनुष्य ईश्वरको मानता है किन्तु उसकी सारी आज्ञाओंका उल्लंघन करता है, और दूसरा ईश्वरको नामसे न जानते हुए भी अपने कामसे भजता है और ईश्वरीय नियमोंमें उनके कर्ताको पहचानता है और यह समझकर उनका पालन करता है। इन दो व्यक्तियोंमें हमें किसको नीतिमान या धर्मात्मा मानना चाहिए? इस सवालका जवाब देनेके लिए, क्षणभर भी रुके बिना, हम निश्चित रूपसे कह सकेंगे कि दूसरा व्यक्ति ही धर्मात्मा तथा नीतिमान माना जायेगा।

 

उपर्युक्त विषयसे सम्बन्धित दोहे

प्रभु प्रभु पूछत भव गयो, भइ नहीं प्रभु पिछान;
खोजत सारा जग फिरो, मिले न श्री भगवान।
सहस्र नामसे सोच की, एकि न मिलो जवाब;
जप-तप कीनो जन्म तक, हरि हरि गिने हिसाब।
साधु संतको संग किनो, वेद पुरान अभ्यास;
फिर भी कछु दरशन नहीं पायो प्राण उदास।
कहो जी, प्रभु अब क्युं मिले सोचूं जीकूं आज;
जन्म जुदाई यह भई, कछु नहि सुझत इलाज।
अन्तरयामी तब कहे क्यूं तूं होवे कृतार्थ?
'प्रभु', बकबक फोगट करे, निश दिन ढूंढ़त स्वार्थ।
मुख 'प्रभु' नाम पुकारत, अन्तरमें अहंकार;
दंभी! ऐसे दंभ से, दिनानाथ मिलनार?
ठग विद्यामें निपुण भयो, प्रथम ठगे मा-बाप;
सकल जगत कूं ठगत तूं, अंत ठग रह्यो आप।
सुनते सुध-बुध खुल गई, प्रकटयो पश्चात्ताप;
उलट पुलट करने गयो; आप ही खायो मार।

—बहरामजी मलबार

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, २-२-१९०७