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३४०. नीतिधर्म अथवा धर्मनीति—६

[फरवरी ५, १९०७ के पूर्व][१]

नीतिके विषयमें डार्विनके विचार

इस प्रकरणका सारांश देनेके पहले डार्विनका परिचय करा देना जरूरी है। पिछली शताब्दीमें डार्विन नामक एक महान अंग्रेज हो गये हैं। उन्होंने विज्ञान सम्बन्धी बड़ी-बड़ी खोजें की हैं। उनकी स्मरण शक्ति और अवलोकन शक्ति बड़ी ही जबरदस्त थी। उन्होंने कुछ पुस्तकें लिखी हैं जो बहुत ही पढ़ने और विचार करने योग्य हैं। मनुष्यकी आकृतिकी उत्पत्ति किस प्रकार हुई इस सम्बन्ध में उन्होंने अनेक उदाहरण और दलीलें देकर बताया है। कि वह एक जातिके बन्दरोंसे हुई है। यानी अनेक प्रकारके प्रयोग करके और बहुतसे निरीक्षण के बाद उन्हें यह दिखाई दिया है कि मनुष्यकी आकृति और बन्दरकी आकृतिके बीच बहुत अन्तर नहीं है। यह विचार ठीक है या नहीं, इसका नीतिसे कोई गहरा सम्बन्ध नहीं है। लेकिन डार्विनने उपर्युक्त विचार व्यक्त करने के साथ यह भी बताया है कि नीतिके विचारोंका मनुष्य जातिपर क्या प्रभाव पड़ता है। और चूंकि डार्विनके विचारोंपर बहुतसे विद्वानोंकी श्रद्धा है इसलिए हमारे पुस्तक लेखकने भी डार्विनके विचारोंके सम्बन्धमें छठा प्रकरण लिखा है।

प्रकरण ६

जो अच्छा और सत्य हो उसे अपनी इच्छासे ही करने में कुलीनता है। मनुष्यकी कुलीनताकी सच्ची निशानी ही यह है कि वह जो उचित जान पड़ता है उसे हवाके झोंकेसे इधर-उधर भटकनेवाले बादलोंके समान धक्के खानेके बदले स्थिर रहकर करता है और कर सकता है।

इतना होते हुए भी हमें यह जानना चाहिए कि उसका रुझा अपनी वृत्तियोंको किस दिशामें ले जानेका है। यह हम जानते हैं कि हम सर्वतन्त्र स्वतन्त्र नहीं हैं। हमें कुछ-कुछ बाह्य परिस्थितियोंके अनुसार चलता होता है। जैसे कि, जिस देशमें हिमालय जैसी सर्दी पड़ती हो वहाँ हमारी इच्छा हो या न हो फिर भी शरीरको गरम रखने के लिए ढंगसे कपड़े पहनने पड़ते हैं। मतलब यह कि हमें समझदारीसे चलना होता है।

तब यह प्रश्न उठता है कि अपने आस-पासकी और बाहरी परिस्थितिको देखते हुए हमें नीति अनुसार व्यवहार करना पड़ता है या नहीं; अथवा, हमारे व्यवहारमें नीति हो या न हो, इसकी परवाह किये बिना काम चल सकता है?

इन प्रश्नोंपर विचार करते हुए डार्विनके मतका परीक्षण करनेकी जरूरत होती है। यद्यपि डार्विन नीति-विषयका लेखक न था; तो भी उसने यह स्पष्ट कर दिया है कि बाहरी वस्तुओंके साथ नीतिका सम्बन्ध कितना गहरा है। जो लोग यह मानते हैं कि मनुष्य

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