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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

नैतिकताका पालन करे या न करे इसकी चिन्ता नहीं और इस दुनियामें केवल शारीरिक-बल या मानसिक-बल ही काम आता है, उन्हें डार्विनके ग्रन्थ पढ़ने चाहिए। डार्विनके कथनानुसार, मनुष्य तथा अन्य प्राणियोंमें जीवित रहनेका लोभ रहता है। वह यह भी कहता है कि जो इस संघर्षमें जीवित रह सकते हैं वे ही विजयी माने जाते हैं और जो अयोग्य हैं उनका जड़मूलसे नाश हो जाता है। परन्तु यह संघर्ष शारीरिक बलपर ही नहीं चल सकता।

यदि हम मनुष्यकी रीछ या भैंसेसे तुलना करें तो हमें मालूम होगा कि शारीरिक-बलमें रीछ या भैंसा मनुष्यसे बढ़कर है। उनमें से किसी एकके साथ मनुष्य यदि कुश्ती लड़े तो वह हार जायेगा। इतना होते हुए भी अपनी बुद्धिके कारण मनुष्य अधिक बलवान है। ऐसी ही तुलना हम मनुष्य जातिके विभिन्न समाजोंके बीच भी कर सकते हैं। युद्धके समय केवल वे ही जीतते हैं जिनके सिपाही अधिक बलवान हों या सिपाहियोंकी संख्या अधिक हो, सो बात नहीं; जीत उनकी होती है जिनके पास युद्ध कौशल है और अच्छे सेनानायक होते हैं—भले ही वे संख्यामें कम व शरीरसे दुर्बल हों। ये बौद्धिक शक्तिके उदाहरण हैं।

डार्विन कहता है कि बुद्धिबल और शरीरबलसे नीति-बल कहीं बढ़कर है और योग्य मनुष्य अयोग्यकी अपेक्षा अधिक टिक सकता है। इस बातकी सचाई हम अनेक प्रकारसे देख सकते हैं। कुछ लोग मानते हैं कि डार्विनने तो यही सिखाया है कि "शूरा सो पूरा" यानी शारीरिक बलवानोंकी ही अन्तमें विजय होती है और इसीके अनुसार विचार करने-वाले लेभग्गू लोग मान बैठते हैं कि नीति तो बेकार चीज है। परन्तु डार्विनका यह विचार बिलकुल नहीं है। प्राचीन ऐतिहासिक तथ्योंके आधारपर देखा गया है कि जो समाज अनैतिक थे उनका आज नामोनिशान भी नहीं रहा। सोडम और गमोराके लोग अत्यन्त अनैतिक थे इसलिए आज वे देश भूमिसात् हो गये। हम आज भी देख सकते हैं कि अनीतिपूर्ण समाजोंका नाश होता जा रहा है।

अब हम कुछ साधारण उदाहरण लेकर देखेंगे कि साधारण नीति भी मानव-जातिका अस्तित्व कायम रखने में कितनी जरूरी है। शान्त स्वभाव नीति का एक अंग है। इस वाक्यको लेकर यदि हम ऊपरी तौरसे देखें तो हमें लगेगा कि घमण्डी मनुष्य उन्नति कर जाता है, परन्तु थोड़ा विचार करनेपर हम देख सकते हैं कि मनुष्यकी घमण्ड-रूपी तलवार तो आखिर उसीकी गर्दनपर पड़ती है। मनुष्यको व्यसन नहीं करना चाहिए—यह नीतिका दूसरा विषय है। आँकड़ोंकी जाँच द्वारा पता चलता है कि विलायत में तीस वर्षकी उम्र के शराबी लोग आगे तेरह या चौदह वर्षसे अधिक नहीं जीते। परन्तु निर्व्यसनी मनुष्य सत्तर वर्ष तक जीवित रहते हैं। व्यभिचार नहीं करना चाहिए, यह नीतिका तीसरा विषय है। डार्विनने कहा है कि व्यभिचारी लोग बहुत शीघ्र नाशको प्राप्त होते हैं। उन्हें सन्तान नहीं होती और यदि होती भी है तो अत्यन्त दुर्बल दिखलाई देती है। व्यभिचारी लोगोंका मन हीन हो जाता है और ज्यों-ज्यों उम्र बीतती है त्यों-त्यों उनका चेहरा-मोहरा पागलों जैसा लगने लगता है।

यदि हम कौमोंकी नीतिके सम्बन्धमें विचार करेंगे तो भी हमें यही स्थिति दिखाई देगी। अंडमान द्वीपके पुरुष, जैसे ही उनकी सन्तान चलने-फिरने लायक हो जाती है, अपनी पत्नियोंको छोड़ देते हैं। मतलब यह कि परमार्थ-बुद्धि दिखाने के बदले वे परले दर्जेकी स्वार्थ