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पत्र : छगनलाल गांधीको

बुद्धि दिखाते हैं। परिणाम यह हुआ है कि इस कीमका धीरे-धीरे नाश होता जा रहा है। डार्विन कहते हैं कि जानवरोंमें भी कुछ हद तक परमार्थ-बुद्धि दिखाई देती है। डरपोक स्वभाववाले पक्षी भी अपने बच्चोंकी रक्षा करते समय बलवान हो जाते हैं। इससे मालूम होता है कि प्राणिमात्रमें थोड़ी-बहुत परमार्थ-बुद्धि रहती ही है। यदि न होती तो इस दुनियामें घासफूँस और जहरीली वनस्पतियोंके सिवा शायद ही कुछ जीवधारी दिखाई देते। मनुष्य और अन्य प्राणियोंमें सबसे बड़ा अन्तर यह है कि मनुष्य सबसे अधिक परमार्थी है। अपने नैतिक बलके अनुसार मनुष्य दूसरोंके लिए, यानी अपनी सन्तानके लिए, अपने कुटुम्बके लिए और अपने देशके लिए अपनी जान कुर्बान करता आया है।

मतलब यह है कि डार्विन साफ-साफ बतलाता है कि नीति-बल सर्वोपरि है। यूनानी लोग आजके यूरोपीय लोगोंसे कहीं अधिक बुद्धिमान थे। फिर भी ज्यों ही उन लोगोंने नीतिका परित्याग किया त्यों ही उनकी बुद्धि उन्हींकी दुश्मन बन गई, और आज वह समाज देखने में भी नहीं आता। जातियाँ न पैसेके बलपर टिकती हैं और न सेनाके बलपर; वे केवल नीति के आधारपर ही टिक सकती हैं। यह विचार सदा मनमें रखकर परमार्थ-रूपी परम नीतिका आचरण करना मनुष्य मात्रका कर्त्तव्य है।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन ९-२-१९०७
 

३४१. पत्र : छगनलाल गांधीको

जोहानिसबर्ग
फरवरी ५, १९०७

चि॰ छगनलाल,

तुम्हारी तरफसे स्पष्ट करनेके लिए कुछ पत्र आये थे। उन्हें आज स्पष्टीकरण के साथ डाक से भेज रहा हूँ। कुछ अन्य गुजराती सामग्री भी आज भेज रहा हूँ। उसे इसी बार छापना है। यदि आदमजी सेठ न जा रहे हों, तो उनके बारेमें जो लिखा है,[१] वह अगली बार दिया जाये। आदमजी सेठको वहाँ मानपत्र देनेके सम्बन्धमें मैंने लिखा है। यदि कांग्रेसकी तरफसे मानपत्र दिया गया होगा, तो मेरा खयाल है उसका अलग वृत्तान्त आयेगा।[२]

इस बार गुजराती विभागमें कांग्रेसके भाषण वगैरह दिये गये, यह ठीक हुआ। अमीरका जीवन-वृत्तान्त बहुत लम्बा हो गया। ऐसा नहीं होना चाहिये था।

'नीति-धर्म' के लिए उर्दू कविता आजतक नहीं मिली। यदि वहाँ तुम्हारी नजर में आये तो दे देना। मुझे आज उर्दू मिलने की आशा थी। न मिले, तो जाने देना। किन्तु ऐसी कोई चीज न देना जो केवल हिन्दुओंपर ही लागू हो। "परमारथ प्रीछ्यो नहि प्राणी,

  1. देखिए "आदमजी मियाँखाँ", पृष्ठ ३३४।
  2. यह मानपत्र फरवरी ६, १९०७ को भेंट किया गया था और समारोहका विवरण फरवरी ९, १९०७ के इंडियन ओपिनियनमें छपा था।

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