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३४६. नेटालमें भारतीय व्यापारी

नेटालमें इस समय भारतीय व्यापारियोंपर बड़ी मुसीबत आ पड़ी है। इसपर हम बहुत लिख चुके हैं।[१] फिर भी इसके बारेमें हमें जो करना है उसपर हम जितना भी विचार करें कम है।

'टाइम्स ऑफ नेटाल' में श्री एफ॰ ए॰ बेकर नामक एक सज्जनने पत्र लिखा है कि उन्होंने खुद एक काफिरको एक भारतीय दूकानमें रोगन करते देखा। उस आधारपर उन्होंने निम्नानुसार लिखा है :

मुझे मालूम नहीं कि साधारण मनुष्य इसका खयाल रखता है या नहीं। यदि रखता तो वह कभी ऐसा नहीं कहता कि भारतीय व्यापारियोंको जबरदस्ती न निकाला जाये। हम [गोरे] भारतीय व्यापारियोंको कितना ही लाभ क्यों न पहुँचायें, वे कभी गोरेको लाभ नहीं होने देंगे। यदि वे एक कोड़ी भी गोरोंकी जेबमें डालते हैं तो विवश हो जानेपर ही। मैंने [गोरे] सरकारी नौकरों, मजदूरों वगैरहको भारतीय दूकानमें जाते देखा है। किन्तु क्या कभी उसी व्यापारीने उन्हें कोई काम भी सौंपा है? यदि भारतीय व्यापारी जानता हो कि कोई गोरा भूखों मर रहा है, तब भी वह कभी उसकी मदद नहीं करेगा। ऐसे भारतीयोंपर दया करनेका क्या कारण है? यदि हमारी संसदके सदस्य उन्हें निकाल देनेका कानून पास न करें, तो हमें उन सदस्योंको हटाकर ऐसे लोगोंको भेजना चाहिए जो हमारे विचारोंके अनुसार चलें।

उपर्युक्त गोरे सज्जनके विचारोंसे हमें सार यह लेना है कि हमें गोरोंको भी काम देना चाहिए। गलत लोभ करके रंगाईके लिए काफिरको बुलाना ओछी नजरका हिसाब है। इस देशकी परिस्थितियोंका विचार करके जो काम उनके (गोरोंके लिए उपयुक्त मालूम हो वह यदि हम उन्हें दें तो इसका परिणाम यह होगा कि काम पानेवाला प्रत्येक गोरा भारतीय व्यापारीका विज्ञापन बन जायेगा। सम्पन्न गोरोंकी खुशामदके लिए हम जो कुछ करते हैं उसके बजाय या उसीके साथ यदि हम कुछ गरीब गोरोंके लिए भी करें, खुशामदकी दृष्टिसे नहीं बल्कि उन्हें लाभ पहुँचानेके लिए, तो उसका नतीजा अच्छा होगा। श्री टैथम जैसे साँपको अपनेको कटवानेके लिए दूध पिलाकर पालनेके बदले किसी गोरेकी मदद करना हम हर तरह अच्छा समझते हैं। यदि हमने मदद नहीं की तो यह मानकर ही कि वे हमारा नुकसान करेंगे।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, ९-२-१९०७
  1. देखिए "परवानेकी तकलीफ", पृष्ठ २९९, "नेटालका परवाना-कानून", पृष्ठ ३१०-१३ और "नेटाल मर्क्युरी और भारतीय व्यापारी", पृष्ठ ३१३-१४।