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नेटालका परवाना-कानून

कि दक्षिण आफ्रिका चाहे जितने भारतीय जाना चाहें, उन्हें जानेकी छूट होनी चाहिए। यह सारा लेख निरर्थक है, यह बात समझमें आ सकती है। लेकिन यह हार न मानते हुए "तमाचा मारकर मुँहकी लाली बनाये रखने" के समान है।[१] उस लेखको छोड़ दें तो यह देखा जा सकता है कि बड़े व्यापारियोंको कष्ट न होना चाहिए, प्रवासी कानूनसे होनेवाली परेशानियाँ मिटनी चाहिए, और भारतीय समाजके प्रति सामान्यतः न्याय-दृष्टिसे बरताव होना चाहिए। 'ऐडवर्टाइज़र' का यदि ऐसा बरताव बना रहे, तो मान सकते हैं कि डर्बनके दोनों समाचारपत्र भारतीय समाजकी ओर कुछ मीठी दृष्टि रखेंगे, एकदम आक्रमण नहीं करेंगे। जिस प्रकार डर्बनमें हुआ उसी प्रकार मैरित्सबर्ग के समाचारपत्रोंके सम्बन्धमें भी हो तो उससे लाभ होने की सम्भावना है।

किन्तु 'ऐडवर्टाइज़र' के लेखसे यह नहीं समझ लेना है कि अब हमारे लिए कुछ करना नहीं रहा। समाचारपत्र हमारे विरुद्ध न लिखें, इससे हमें लड़ना कम होगा। परन्तु समाचार-पत्रोंके समान और भी बहुत-से शत्रुओंको जीतनेका काम हमारे लिए है ही। गोरे लोग ऐसे नहीं हैं कि अपना आन्दोलन छोड़ दें। जैसा कि श्री आर्थर वेडने आफ्रिकी लोगोंको उभाड़ना आरम्भ किया है। उन्होंने आफिकियोंको समझाया है कि वे भारतीय व्यापारियोंके साथ बिलकुल व्यवहार न करें। ऐसे एक-दो भाषणोंका विशेष प्रभाव नहीं होगा। परन्तु ये हमें चेतावनी दे रहे हैं कि हम लोगोंको सदैव जागृत रहना है।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, १६-२-१९०७
 

३५०. नेटालका परवाना-कानून

मैरित्सबर्ग में परवाने के सम्बन्ध में एक अपील की गई थी। उसमें नगर परिषदके एक सदस्यने बताया कि जो भारतीय ब्रिटिश प्रजा है उसे परवाना देने से इनकार करते समय संकोच होना चाहिए। इसके अलावा वहाँके [व्यापार] संघने ऐसा प्रस्ताव पास किया है कि जो भारतीय अपने-आपको ब्रिटिश प्रजा सिद्ध कर सकता है उसे परवाना मिलनेमें रुकावट नहीं होनी चाहिए। वेरुलममें चार मुकदमें और चले थे। उनमें भी दूकानें गन्दी होने, दूकान में से होकर घरमें जाने तथा दूकानके अन्दर भोजन करने के सम्बन्ध में शिकायत थी। पोर्टशेप्स टन में चमड़ीके रंगके कारण ही परवाना रोक दिया गया है। लेडीस्मिथ और उसके आसपास के हिस्सेकी परवाना सम्बन्धी अपील खारिज कर दी गई है और उसका कारण यह बताया गया है कि व्यापारी बहीखाता नहीं समझ सकते, तथा अंग्रेजी बिलकुल नहीं जानते और कम तनख्वाहवाले नौकरोंपर ही उनका सारा दारोमदार है। बहीखाते लिखनेवालेका बयान अथवा गवाही लेने से इनकार किया गया, इससे मालूम होता है कि गोरे हमें इस देशसे निकाल ही देना चाहते हैं। जिन लोगोंके परवाने लिये गये हैं उनकी आजीविकाका साधन ले लिया गया है। ऐसी स्थिति में भूखों मरें, या बिना परवानेके व्यापार करें? सरकारको इस सम्बन्ध में विचार करना है। नगरपालिकाओंको सरकारने चेतावनी देकर समझाया था कि उन्हें जो

  1. झेंप छिपानेके समान है।