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३५२. नीतिधर्म अथवा धर्मनीति—७
सामाजिक आदर्श

कभी-कभी यह कहा जाता है कि नैतिकता मात्रमें सार्वजनिक कल्याण समाया है। यह बात ठीक है। उदाहरणार्थं, यदि न्यायाधीशमें न्याय बुद्धि हो तो उन लोगोंको, जिन्हें न्यायालयमें जाना पड़ता है, समाधान मिलता है। इसी प्रकार प्रीति, ममत्व, उदारता आदि गुण भी दूसरोंके प्रति ही बताये जाते हैं। वफादारीकी ताकत भी हम दूसरोंके सम्पर्क में आनेपर ही व्यक्त कर सकते हैं। स्वदेशाभिमानके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या? सच देखा जाये तो नैतिकतासे सम्बन्धित एक भी बात ऐसी नहीं जिसका परिणाम नैतिकताका पालन करने-वालेको ही मिले। कभी-कभी ऐसा कहा जाता है कि सत्य आदि गुणोंका सम्बन्ध दूसरोंसे नहीं होता। परन्तु असत्य बोलकर यदि हम किसीको धोखा दें तो उसको नुकसान पहुँचेगा, इस बातको हम स्वीकार करते हैं; तब यह भी स्वीकार करना होगा कि सच बोलने से दूसरा मनुष्य उस नुकसानसे बच गया।

इसी तरह जब कोई मनुष्य किसी रिवाज या कानूनको नापसन्द करके उसके बाहर रहता है, तब भी उसके उस कार्यका परिणाम जन-समाजपर होता है। ऐसा मनुष्य विचारोंकी दुनियामें रहता है। उन विचारोंसे मिलती-जुलती दुनिया अभी पैदा नहीं हुई है, इसकी वह परवाह नहीं करता। ऐसे मनुष्यके लिए प्रचलित मान्यताओंका अनादर करनेके हेतु यह विचार-भर काफी है कि वे उचित नहीं हैं। ऐसा व्यक्ति अपने विचारोंके अनुसार दूसरोंको चलानेके लिए सदैव प्रयत्नशील रहेगा। पैगम्बरोंने दुनिया में प्रचलित चक्रोंकी गतिको इसी प्रकार बदला हैं।

जबतक मनुष्य स्वार्थी है, अर्थात् दूसरोंके सुखकी परवाह नहीं करता, तबतक वह जानवर जैसा ही, या उससे भी बदतर है। मनुष्य जानवरसे श्रेष्ठ है, यह हमें तभी मालूम होता है जब हम उसे अपने कुटुम्बकी रक्षा करते हुए देखते हैं। इससे भी ज्यादा वह मनुष्य जाति में तब आता है जब वह अपने देश या समाजको अपना कुटुम्ब मानने लगता है। जब मानव- मात्रको अपना कुटुम्ब मानता है तब तो वह इससे भी ऊँची सीढ़ीपर चढ़ जाता है। इसका मतलब यह हुआ कि मनुष्य जितना मानव समाजकी सेवा करने में पीछे रहता है उतना ही वह हैवान है अथवा अपूर्ण है। मुझे अपनी पत्नीके लिए, अपने समाजके लिए तो दर्द हो, परन्तु उससे बाहरके मनुष्यके लिए यदि कोई हमदर्दी न हो, तो स्पष्ट है कि मुझे मानव जातिके दुखकी परवाह नहीं है। और अपनी पत्नी, बच्चे या समाजके प्रति, जिन्हें मैंने अपना माना है, पक्षपात या स्वार्थ-बुद्धि के कारण कुछ-कुछ सहानु-भूति होती है।

अतः जबतक हमारे मनमें हरएक मनुष्यके लिए दया नहीं जगती तबतक हमने न तो नीतिधर्मका पालन किया और न उसे जाना ही है। यों हम देखते हैं कि उत्कृष्ट नैतिकता सार्वजनिक होनी चाहिए। अपने सम्बन्धमें हमें यह सोचकर चलना चाहिए कि प्रत्येक मनुष्यका हमपर हक है; यानी सदा उसकी सेवा करना हमारा कर्त्तव्य है। किन्तु अपने बारेमें हमें यह सोचकर चलना चाहिए कि हमारा किसीपर भी हक नहीं है। कोई यह