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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कहेगा कि ऐसा मनुष्य इस दुनियाके संघर्ष में कुचलकर मर जायेगा तो उसकी यह बात केवल नादानी ही होगी, क्योंकि यह सर्वविदित अनुभव है कि एकनिष्ठ सेवा करनेवाले मनुष्यको हमेशा खुदाने बचाया है।

ऐसी नीतिकी दृष्टिसे मनुष्य-मात्र एक समान है। इसका मतलब यह न किया जाये कि प्रत्येक मनुष्य समान पदका उपभोग करता है या एक प्रकारका काम करता है। बल्कि इसका अर्थ यह होता है कि यदि मैं किसी उच्च पदपर हूँ तो उस पदकी जिम्मेदारी सँभालने की मुझमें शक्ति है। अतः न तो उससे मुझे बचना है, न यह मान लेना है कि मुझसे नीचे दर्जे़का काम करनेवाले लोग मुझसे हलके दर्जेंके हैं। समत्वका भाव हमारे मनकी स्थितिपर निर्भर है। जबतक हमारे मनकी यह स्थिति नहीं हो जाती, हम बहुत पिछड़े हुए रहेंगे।

इस नियमके अनुसार एक कौम अपने स्वार्थ के लिए दूसरी कौमपर शासन नहीं कर सकती। अमेरिकी लोग अपने यहाँके मूल निवासियोंको गिराकर उनपर राज्य करते हैं, यह बात नीतिविरुद्ध है। उन्नत कौमका अविकसित कौमसे पाला पड़े तो उन्नत कौमका फर्ज है कि वह उसे अपने ही समान उन्नत बना दे। ठीक इसी नियमके अनुसार राजा प्रजाका कोई मालिक नहीं, बल्कि सेवक है। अधिकारीगण भी अधिकारके उपभोगके लिए नहीं, बल्कि प्रजाको सुख पहुँचाने के लिए हैं। गणतांत्रिक राज्यमें यदि लोग स्वार्थी हों तो उस राज्यको निकम्मा समझा जाये।

और एक ही राज्यके निवासियोंमें अथवा एक ही कौमके लोगोंमें हमारे नियमके अनुसार बलवानोंको दुर्बलोंकी रक्षा करनी है, न कि उन लोगोंको कुचलना है। ऐसी व्यवस्था में न तो भुखमरी होगी, न अति धनिकता ही। क्योंकि वहाँ इस बात के लिए कोई गुंजाइश न होगी कि हम अपने पड़ोसीका दुःख देखते हुए सुखसे बैठे रहें। सर्वोच्च नैतिकताका निर्वाह करनेवाले मनुष्यसे धन-संग्रह किया ही नहीं जा सकता। ऐसी नैतिकता जगतमें बहुत कम दिखाई देती है। फिर भी नैतिक व्यक्तिको घबराना नहीं है, क्योंकि वह अपनी नैतिकताका स्वामी है, उसके परिणामका नहीं। यदि वह नैतिकताका पालन नहीं करेगा तो वह दोषी माना जायेगा, परन्तु उसका परिणाम यदि जन-समाजपर न हो तो उसके लिए उसे कोई दोष नहीं देगा।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, १६-२-१९०७