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३६१. नीतिधर्म अथवा धर्मनीति—८
व्यक्तिगत नैतिकता

"मैं जिम्मेदार हूँ", "यह मेरा फर्ज है"—यह विचार मनुष्यको दोलायमान कर देता है और एक विचित्रताका अनुभव कराता है। हमारे कानोंमें सदा एक रहस्यमय आवाजकी प्रतिध्वनि पड़ा करती है! "हे मानव! यह काम तेरा है। हार या जीत तुझे स्वयं ही प्राप्त करनी है। तेरे जैसा दुनियामें तू ही है क्योंकि प्रकृतिने दो समान वस्तुएँ कहीं नहीं बनाई हैं। जो कर्तव्य तुझे सौंपा गया उसे यदि तू नहीं निभाता तो जगतके लेखा-जोखा पत्र में उतना नुकसान आता ही रहेगा।

ऐसा यह कौन-सा फर्ज है जो मुझको ही बजाना है? कोई कहेगा कि :

"आदमको खुदा मत कह, आदम खुदा नहीं
लेकिन खुदाके नूरसे आदम जुदा नहीं।"

और फिर कहेगा कि इस हिसाब से मैं खुदाका नूर हूँ, यह मानकर मुझे बैठे रहना है। दूसरा कहेगा कि मुझे अपने आसपास के लोगोंसे हमदर्दी और भाईचारा रखना है। तीसरा कहेगा कि मुझे तो अपने माता-पिताकी सेवा करनी है, पत्नी-बच्चोंको सँभालना है, भाई-बहन तथा मित्रके साथ समुचित बर्ताव करना है। किन्तु इन सारे गुणोंको रखते हुए मुझे स्वयं अपने प्रति भी वैसा ही बर्ताव करना है और यह मेरे समग्र कर्तव्यका एक विशेष अंग है। जबतक मैं स्वयं अपने को ही नहीं पहचानता तबतक मैं दूसरोंको कैसे पहचान सकूँगा? और जिसे मैं पहचानता नहीं उसका सम्मान भी कैसे कर सकूँगा? बहुत लोगोंकी यह मान्यता हो गई है कि मनुष्यको दूसरोंके सम्पर्कमें आकर ठीक तरहसे व्यवहार करना चाहिए। परन्तु जबतक हम इस तरहसे दूसरेके सम्पर्क में नहीं आते तबतक मनमाने ढंगसे, जैसा अच्छा लगे वैसा, बर्ताव कर सकते हैं। जो भी व्यक्ति ऐसा मानता हो वह बिना समझे बोलता है। दुनियामें रहते हुए कोई भी मनुष्य नुकसान किये बिना स्वच्छन्दतापूर्वक नहीं चल सकता।

अब हमें देखना है कि हमारा स्वयं अपने प्रति क्या कर्तव्य है? पहली बात तो यह है कि हमारे एकान्त व्यवहारको हमारे सिवा कोई नहीं जानता। ऐसे व्यवहारका असर हमपर ही होता है, अतः इसके लिए हम जिम्मेदार हैं। लेकिन इतना ही काफी नहीं है। उसका असर दूसरोंपर भी होता है, अतः उसके लिए भी हम जिम्मेदार हैं। हरएकको अपनी उमंगों पर नियंत्रण रखना चाहिए, अपना तन-मन स्वच्छ रखना चाहिए। किसी महापुरुषने कहा है कि मुझे किसी भी मनुष्यके व्यक्तिगत रहन सहनका परिचय दो और मैं आपको तुरन्त बता दूंगा कि वह मनुष्य कैसा है और कैसा रहेगा। इसीलिए हमें अपनी इच्छाओंको काबू में रखना चाहिए। अर्थात्, हमें शराब नहीं पीनी चाहिए; असंयमपूर्वक बहुत अधिक खाना भी नहीं चाहिए, नहीं तो आखिर शक्तिहीन होकर आबरू गँवानी होगी। जो मनुष्य विषयोंसे दूर रहकर अपने शरीर, मन, बुद्धि और जीवनकी रक्षा नहीं करता वह बाह्य जीवनमें सफल नहीं हो सकता।