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सम्पूर्ण गांधी वाङमय


इस प्रकार चिन्तन करनेवाला मनुष्य अपनी अन्तर्वृत्तियोंको स्वच्छ रखकर विशेष तौरसे यह विचार करता है कि अब इन वृत्तियोंका उपयोग क्या किया जाये? जीवनमें कुछ तो निश्चित धारणाएँ होनी ही चाहिए। जीवनका लक्ष्य शोधकर यदि हम उस ओर प्रवृत्त न रहेंगे तो बिना पतवारकी नावके समान बीच समुद्रमें गोते खायेंगे। सबसे श्रेष्ठ लक्ष्य मनुष्यमात्रकी सेवा करना और उसकी स्थिति सुधारनेमें हाथ बँटाना है। इसमें ईश्वरकी सच्ची प्रार्थना, सच्ची पूजाका समावेश हो जाता है। जो मनुष्य खुदाका काम करता है वह खुदाई पुरुष है। खुदाका नाम जपनेवाले कितने ही ढोंगी-पाखण्डी मारे-मारे फिरते हैं। तोता नाम लेना सीख लेता है, इससे उसे कोई खुदाई नहीं कहता। मनुष्यमात्रको समुचित स्थिति प्राप्त हो, ऐसे नियमका प्रत्येक मनुष्य पालन कर सकता है। माँ इसी दृष्टिसे अपने पुत्रका लालन-पालन कर सकती है, वकील इसी धारणासे अपनी वकालत कर सकता है, व्यापारी इसी दृष्टिसे व्यापार कर सकता है और मजदूर इसी आशासे मजदूरी कर सकता है। इस नियमका पालन करनेवाला मनुष्य कभी नीतिधर्मसे विचलित नहीं होता, क्योंकि इससे विचलित होकर मनुष्य-समाजका उत्कर्ष करनेकी धारणा सफल नहीं हो सकती।

हम अब सिलसिलेवार विचार करें। हमें यह निरन्तर देखना होता है कि हमारा रहन-सहन सुधारनेवाला है या बिगाड़नेवाला। व्यापार करनेवाला व्यापारी प्रत्येक सौदे के समय सोचेगा कि वह स्वयं ठगाता तो नहीं या दूसरेको ठगता तो नहीं? यही ध्येय सामने रखकर वकील और वैद्य अपनी कमाईके बदले अपने मुवक्किल या रोगीके हितमें पहले सोचेगा। माँ बच्चेका पालन-पोषण करते हुए सदा सतर्क रहेगी कि कहीं गलत लाड़ या अपने दूसरे स्वार्थंके कारण बच्चा बिगड़ न जाये। इन विचारोंवाला मजदूर भी अपने कर्तव्यका खयाल रखकर मजदूरी करेगा। इस सबका सारांश यह निकलता है कि यदि मजदूर अपने कर्तव्यका पालन नैतिकतापूर्वक करता है तो स्वच्छन्द चलनेवाले धनाढ्य व्यापारी, वैद्य य वकीलसे वह कहीं अच्छा माना जायेगा। ऐसा मजदूर खरा सिक्का है और उपर्युक्त दूसरे स्वार्थी लोग अधिक होशियार या धनवान होते हुए भी खोटे सिक्केके समान हैं। अतः हम यह भी देखते हैं कि उपर्युक्त नियमका पालन करनेमें हर मनुष्य—भले ही वह किसी दर्जेका हो—समर्थ है। मनुष्यका मूल्य उसके रहन-सहनके तरीकेपर निर्भर है, उसके पदपर नहीं। इस रहन-सहनकी परीक्षा उसके बाह्य जीवनसे नहीं होती। वह तो उसकी अन्तर्वृत्ति को जानकर ही की जा सकती है। कोई मनुष्य किसी गरीबसे अपना पिण्ड छुड़ानेके लिए उसे एक डॉलर देता है और दूसरा उसपर दया करके स्नेहपूर्वक आधा डॉलर देता है। इनमें आधा डॉलर देनेवाला मनुष्य वास्तविक रूपमें नैतिक है और पूरा डॉलर देनेवाला पापी है।

तो इस सबका मतलब यह हुआ कि जो मनुष्य स्वयं शुद्ध है, द्वेषरहित है, किसीसे गलत लाभ नहीं उठाता, हमेशा पवित्र मनसे व्यवहार करता है, वही मनुष्य धार्मिक है, वही सुखी है और वही धनवान है। ऐसे लोग ही मानव-जातिकी सेवा कर सकते हैं। दिया-सलाईसें ही यदि अग्नि न हो तो वह दूसरी लकड़ियोंको कैसे सुलगा सकेगी? जो मनुष्य स्वयं ही नीतिका पालन नहीं करता वह दूसरोंको क्या सिखायेगा? जो स्वयं डूब रहा है वह दूसरेको कैसे बचा सकेगा? नैतिकताका आचरण करनेवाला मनुष्य कभी यह सवाल ही नहीं उठाता कि दुनियाकी सेवा किस प्रकार की जाये, क्योंकि यह सवाल ही उसके