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३७७. पत्र : 'ट्रान्सवाल लीडर' को

[जोहानिसबर्ग
मार्च ९, १९०७]

[सेवामें
सम्पादक
'ट्रान्सवाल लीडर'
जोहानिसबर्ग
महोदय,]

'इस उपनिवेशपर कौन शासन करता है?' शीर्षकसे आजके अंकमें प्रकाशित आपके सम्पादकीय में ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीय प्रश्नपर सद्य प्रकाशित नीली पुस्तिकाके विश्लेषणके आधारपर अनेक अजीब असंगत निष्कर्ष निकाले गये हैं। इनमें से एकका खण्डन विशेषतया आवश्यक है।

आप कहते हैं कि यहाँ जो ब्रिटिश भारतीय हैं उन्हें जो राजनीतिक अधिकार और सुविधाएँ अपने देशमें भी प्राप्त नहीं है, आँखें बन्द करके यहाँ नहीं दे दिये जाने चाहिए। मेरे संघने आपके स्तम्भों में कई मर्तबा यह सूचित किया है कि ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीय समाजका इस उपनिवेशमें किन्हीं राजनीतिक अधिकारों अथवा सुविधाओंकी माँगका इरादा नहीं है, और वास्तवमें वह ऐसी माँग करता भी नहीं। ब्रिटिश भारतीय बिलकुल प्रारम्भिक नागरिक अधिकारमात्र चाहते हैं, जो नितान्त भिन्न हैं।

मैं आशा करता हूँ कि तथ्योंकी उपर्युक्त गलतबयानीको आप जल्दीसे-जल्दी सुधारेंगे।

[आपका, आदि,
अब्दुल गनी
अध्यक्ष
ब्रिटिश भारतीय संघ]

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, १६-३-१९०७
 

३७८. अंग्रेजोंकी उदारता

अंग्रेजोंकी ओरसे होनेवाले जुल्मोंके सम्बन्धमें हमें प्रायः लिखते रहना पड़ता है। ट्रान्सवालमें फिरसे डच लोगोंका राज्य सच्चे रूपमें स्थापित हुआ है, इस सम्बन्धमें विचार करनेपर अंग्रेजोंके बारेमें अच्छा लिखनेका प्रसंग हमें मिला है। इससे हमें हर्ष होता है। डच लोग लड़ाईमें हारे इससे अंग्रेजोंकी दृढ़ता सिद्ध होती है। अंग्रेजोंमें 'चीं' बोलनेका अवगुण या गुण जो भी कहें, नहीं है। लड़ाई शुरू हो जाने के बाद उसे जीतना ही उन्होंने जाना है।

लड़ाईके बीच उन्होंने देख लिया कि डच हारनेवाले लोग नहीं हैं। वे भी 'चीं' कहनेवाले नहीं हैं। वे हारकर भी जीत गये। यदि वे सिर्फ मुट्ठीभर न होते तो कभी न हारते। अंग्रेजोंपर इस तरहकी छाप पड़ी। इसके अतिरिक्त चतुर अंग्रेज प्रजाने यह भी देख लिया कि डचोंके साथ युद्ध करने में मुख्य दोष अंग्रेजोंका ही था।