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ट्रान्सवालके पाठकोंसे विनती

पंजीयन करानेको जेल जानेसे भी बुरा समझता है, तो उसके लिए अन्तिम उपायको अपताना कोई गलत काम है। यह बात बेशक सही है कि अन्तिम उपाय उग्रतम कदम है, जिसको खास हालतोंमें ही मुनासिब कहा जा सकता। किसी विशेष अवस्थासे ऐसी हालतें पैदा होती हैं या नहीं, यह मामला अपनी-अपनी रायका है। किसी समाजकी विवेक-बुद्धि इससे नापी जाती है कि उसमें इस तरीकेको मुनासिब ठहराने के लिए प्रचलित वास्तविक अवस्थाको खोज निकालनेकी कितनी क्षमता है। इसलिए, यदि ट्रान्सवालके भारतीयों द्वारा पेश की हुई सभी नर्म तजवीजें कोई असर न करें और अगर साम्राज्य सरकार बलवानसे दुर्बलकी रक्षा करनमें अपना फर्ज छोड़ दे, तो हम अपनी इस रायको फिर दुहराते हैं कि भारतीयोंके लिए स्वाभिमानी समझा जानेका, इसके सिवाय कि इस विधेयकसे होनेवाले अपमानके आगे झुकने के बजाय वे शान्ति, साहस और ईश्वरपर भरोसे के साथ जेल जाना पसन्द करें, और कोई मार्ग खुला नहीं रह जाता।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, ६-४-१९०७
 

४१५. ट्रान्सवालके पाठकोंसे विनती

इस बारका 'इंडियन ओपिनियन' हम बहुत महत्त्वपूर्ण मानते हैं। इसमें ट्रान्सवालकी सभाका विवरण[१] सभीके पढ़ने के योग्य है। लेकिन अंग्रेजी विवरण अधिकसे अधिक गोरोंके पढ़ने में आये तो अच्छा होगा। यह ज्यादा जरूरी है। उन्हें दूसरा प्रस्ताव पढ़ाना बहुत जरूरी है। यदि ठीक तरहसे पढ़ें तो हमें विश्वास है कि वे हमारा निवेदन मान्य कर लेंगे और यदि मान्य कर लिया तो विधेयक लागू नहीं होगा। इसलिए हम अपने पाठकोंको सूचित करते हैं कि उनसे जितनी प्रतियाँ मँगवाई जा सकें, उतनी मँगवाकर वे गोरोंको दें और उनसे पढ़ने को कहें। हमारा यह उद्देश्य पूरा होगा, ऐसा मानकर हमने कुछ प्रतियाँ ज्यादा छापी हैं। जिन्हें प्रतियोंकी आवश्यकता हो, वे हमारे प्रधान कार्यालय या हमारे जोहानिसबर्ग कार्यालयसे मँगवा लें। प्रत्येक प्रतिपर चार पैनीके टिकट लगाये जायें। इतना जरूर है कि समझाये बिना किसी भी गोरेको प्रति देना फेंक देने के समान है। अतः यदि देना हो तो उसे यह समझा देना भी जरूरी है कि उसे कौनसा हिस्सा पढ़ना है।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, ६-४-१९०७
  1. देखिए "ट्रान्सवालके भारतीयों की विराट सभा", पृष्ठ ४११-२३।