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ट्रान्सवालके भारतीयोंकी विराट सभा
अंग्रेज मित्रोंकी वास्तविक स्थितिके सम्बन्धमें अज्ञान प्रदर्शित किया है। उनकी जानकारीके लिए मैं दुबारा कहता हूँ कि हम गोरोंकी स्थिति जानते हैं और उनके विचारोंसे एकरूप होना चाहते हैं। इसीलिए हमने अपने राजकीय अधिकारोंको छोड़ा है, इसीलिए हमने जाति-भेद रहित प्रवास और व्यापार सम्बन्धी अधिनियम स्वीकार करनेकी तैयारी दिखाई है। यदि कोई कहता है कि यह तो हम अपनी विवशताके कारण स्वीकार कर रहे हैं तो यह बिलकुल गैरवाजिब होगा; क्योंकि यदि हम चाहते तो इस सम्बन्ध में लड़ाई तो कर ही सकते थे, और उपनिवेश एवं भारत कार्यालयको तंग करके उनकी मुसीबतोंको भी बढ़ा सकते थे। मैं तो अपने समाज के लिए शाबाशीकी माँग कर सकता हूँ; क्योंकि बगैर लाचार हुए हम अपनी स्थितिको समझ सके और हमने बड़ी सरकारको तंग नहीं किया। फिर, श्री परचेस हमारे मित्रोंको नहीं पहचानते। यदि वे पहचानते होते तो जान सकते थे कि हमारे मित्रोंमें बहुतेरे तपे-तपाये, अनुभवी और प्रसिद्धि प्राप्त पुराने सरकारी कर्मचारी हैं। वे लोग बिना विचारे एकका पक्ष कदापि नहीं ले सकते। सर लेपेल ग्रिफिन, सर विलियम बुल, सर रेमंड वेस्ट जैसोंपर पक्षपातका आक्षेप करनेवाला व्यक्ति, यही कहना होगा, उन्हें नहीं जानता है। सुविख्यात उदारदलीय सदस्योंके नाम लेनेकी मुझे आवश्यकता नहीं है। उन्हींकी बदौलत तो परिषद तथा विधानसभाके सदस्य निर्वाचित किये गये हैं। जिस हेतुसे उन्होंने ट्रान्सवालकी गोरी प्रजाके प्रति अनपेक्षित उदारता दिखाई है उसी हेतु वे ट्रान्सवालकी सरकारसे यह आशा रखते हैं कि वह भारतीय समाजके साथ न्याय करे। उसकी और साथ ही हमारी राय में स्वराज्यका अर्थ है अपने ऊपर राज्य करनेका अधिकार, न कि जिनके पास मताधिकार नहीं है उनपर अत्याचार करने का अधिकार। स्वराज्यके इस अर्थको उपनिवेशवाले लोग भूल जाते हैं और संविधान में काले लोगोंके हकोंकी रक्षाके लिए रखे गये बन्धनोंको पसन्द नहीं करते। इसीलिए सर रिचर्ड सॉलोमनके समान व्यक्ति भी कहते हैं कि ये बन्धन वरायनाम हैं। उत्तरदायी सरकारके प्रारम्भमें ही हमारी यह स्थिति हो गई है।

लॉर्ड सेल्बोर्न

जिस प्रकार उपनिवेशको स्वतन्त्रता मिल जाने से हमारी स्वतन्त्रताके सम्बन्धमें हमें भय लग रहा है उसी प्रकार जब हम लॉर्ड सेल्बोर्नके लेख पढ़ते हैं, तब हमें घबराहट होती है। हमें आशा थी कि लड़ाईके पहले जो लॉर्ड सेल्बोर्न हमारे हकोंकी बात किया करते थे वे, अधिक अच्छा मौका मिलनेपर, हमारी और अधिक रक्षा करेंगे। परन्तु मुझे आदरसहित कहना चाहिए कि उन्होंने न्यासी (ट्रस्टी) की तरह व्यवहार करने के बजाय एक ही पक्षकी हिमायत की है। सबको समदृष्टिसे देखनेके बजाय उन्होंने गोरोंका पक्ष लिया है।

"रिश्वत तो भारतीयका धर्म है"

नीली पुस्तिकाके उनके लेखमें दी हुई कुछ बातोंका ही विवेचन करता हूँ। उनके पास झूठे अनुमतिपत्रवालोंकी बातें पहुँची हैं। उनके आधारपर उन्होंने हमपर अशोभनीय और दुःखदायी आरोप लगाया है। वे कहते हैं "जो पूर्वीय लोगोंके सम्पर्क में आये हैं, वे जानते हैं कि पूर्वके लोग रिश्वत देकर अपना काम निकाल लेना धर्म-विरुद्ध