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ट्रान्सवालके भारतीयोंकी विराट सभा

किन्तु मिल नहीं रहे हैं।" इसलिए यदि श्री चैमनेकी जाँच सही हो तो अनुमति-पत्ररहित और झूठे अनुमतिपत्रवाले औसतन २१ मनुष्य प्रतिमाह आते थे। फिर भी श्री कर्टिस कहते हैं कि झूठे अनुमतिपत्रवाले एशियाई प्रतिमाह १०० के हिसाब से आते थे।

हमारी लड़ाई क्या है?

हमने जो लड़ाई ठानी है वह विधेयककी अमुक धाराओंके विरुद्ध नहीं, बल्कि समूचे विधेयक और उसके उद्देश्यके विरुद्ध है। यह विधेयक हमपर काला धब्बा लगाता है। हमारी भावनाओंको चोट पहुँचाता है। जिनपर यह लागू होता है वे जरायमपेशा होने चाहिए, ऐसा मान लेता है। काफिर और मलायी आदि जिन लोगोंके नित्य सम्पर्क में हम आया करते हैं उनमें और हममें आपत्तिजनक रूपसे भेद खड़ा करके उनके और हमारे बीचके सम्बन्धको बहुत बिगाड़ देता है। इससे हमारी प्रतिष्ठा घटती है। इतना ठीक है कि यह तो केवल भावनाओं को चोट लगने की बात हुई। ऐसी चोट हमेशा सहन नहीं की जा सकती। किसी नगण्य बातके लिए सिर्फ एक-आध बार हमारी भावनाओंको ठेस लगे तो हमारे लिए कोई चिन्ताकी बात नहीं। इतना तो हम गोरोंके हाथों सदा ही सहन करते हैं। परन्तु जब महत्त्वपूर्ण बातोंमें हमारे मनको आघात पहुँचाया जाता है, और हमें सदाके लिए निकृष्ट बनाया जाता है, उस समय यदि हम सहन कर लें तो यह हमारी नामर्दी और देश-द्रोह माना जायेगा। गोरे भविष्यके सम्बन्ध में सोचते हैं, इसलिए हम उनकी प्रशंसा करते हैं। परन्तु उनकी प्रशंसा यदि हम सच्चे हृदयसे करते हों तो हमें चाहिए कि उनका अनुकरण भी करें। उस हालत में यदि हम अपने भविष्यको चिन्ता करते हैं तो गोरोंको हमें शाबाशी क्यों न देनी चाहिए? अपने हकोंकी रक्षाके लिए वे प्रयत्नशील हैं, यह यदि ठीक है तो हम अपने हकोंकी रक्षाके लिए क्यों प्रयत्न नहीं कर सकते?

गोरोंपर क्या बीती थी?

जब राष्ट्रपति कूगरने गोरोंको पास निकलवाने के लिए बाध्य किया था तब वे लोग बहुत उत्तेजित हो गये थे। उन्हें नीचे गिराने का जो उपाय स्वर्गीय राष्ट्रपतिने—उनकी रायमें—खोजा था उससे सारे दक्षिण आफ्रिकामें धूम मच गई थी। अन्तमें राष्ट्रपतिको झुकना पड़ा। तब, जितना निकृष्ट उन्हें बनाया जा रहा था, उसकी तुलना में हमें कहीं अधिक गिराया जा रहा है। दूसरी बात यह कि हमारी अपेक्षा उनके खिलाफ सख्ती बरतने के कारण अधिक प्रबल थे। क्योंकि वे तो निश्चय ही राज्यमें हस्तक्षेप करनेवाले थे, जब कि हमारे विरुद्ध राज्यके अथवा समाजके खिलाफ अपराध करनेका कोई आरोप है ही नहीं। ट्रान्सवाल [सरकार] के वार्षिक प्रतिवेदन में लिखा है कि हमारे लोग पुलिसवालोंको कुछ भी तकलीफ नहीं देते। इतना होनेपर भी, जैसा कि मैं कह चुका हूँ, मानो हम लोग बड़े जरायमपेशा हों, इस प्रकारका कानून चौबीस घंटोंमें पास हो गया है और अब केवल बड़ी सरकारकी स्वीकृति बाकी है।

अपमानके साथ नुकसान भी बहुत है

फिर हम जो आपत्ति उठाते हैं वह केवल भावनाको ठेस पहुँचानेपर ही नहीं है। विधेयकसे हमें बड़ा नुकसान हो रहा है। हमारा यह अनुभव रहा है कि एक ही वर्गपर