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पत्र : लक्ष्मीदास गांधीको


३. जिन्होंने मदद देने को कहा था, उन्होंने मदद नहीं दी, इसलिए आपने बहुत मेहनत करके, कष्ट उठाकर भी चुपचाप जितना मैंने माँगा, उतना पैसा पूरा किया। यह आपकी उदारता और छोटे भाईपर आपका प्रेम प्रकट करता है।

४. प्रश्नमें कही गई स्थिति जब उत्पन्न हुई तब मेरे मन में आया (ऐसा भास होता है) कि मैं खूब कमाई करके आपको तृप्त करूँगा और मेरे लिए भोगे हुए कष्टोंको भुला दूँगा।

५. यह बात मुझे याद नहीं है। क्योंकि स्वयं पिताजीने सम्पत्ति उड़ायी और आपने भी उनके बाद कुछ-कुछ वैसा ही किया।

६. यह बात स्वाभाविक है।

७. मुझे बड़े दुःखके साथ कहना चाहिए कि आपका रहन-सहन उड़ाऊ और बिना सोच-विचारके होने के कारण आपने ऐशो-आराम और झूठे बड़प्पनमें बहुत पैसा उड़ाया है। आपने घोड़ा-गाड़ी रखी, इनाम दिये, स्वार्थी मित्रोंके लिए पैसा खर्च किया, जिसमें से कुछ तो अनीतिमें हुआ समझता हूँ; और ऐसे खर्चके कारण आपने बहुत कर्ज किया और आज भी कर रहे हैं।

८. मुझे याद है कि मैंने बँटवारा किया। उसके बारेमें मुझे जरा भी शर्म या खेद नहीं होता।

९. मैंने अँधेरेमें रखकर बँटवारा किया हो, ऐसा मुझे खयाल नहीं है। ऐसा हो, तब भी ठीक।

१०. मैंने ये गहने फिरसे बनवा कर नहीं दिये, किन्तु उनका और उनके बादके गहनों का पैसा दे चुका हूँ। फिर भी यदि मुझे अब गहने बनवाने का हुक्म हो, तो मैं वैसा नहीं कर सकता, क्योंकि मैं उसे पाप मानता हूँ। किन्तु उनके नामसे यदि मेरे पास बचत हो, तो रुपये जरूर लगा सकता हूँ। मैं गहने बनवानेसे इनकार करता हूँ, इसका यह अर्थ है कि मेरे पहले और आजके विचारोंमें बहुत ही अन्तर है।

११. मैं इसमें उपकार नहीं मानता। मेरे लिए यदि कुछ भी न किया गया होता, तो भी सहोदर भाईके लिए मैं जो करूँगा वह फर्ज समझकर ही करूँगा। तब जिन्होंने मेरे लिए खर्च किया है, उनके लिए यदि मैं कुछ करूँ तो वह तो मेरा दुहरा कर्तव्य है। क्योंकि मैंने सब-कुछ लोकार्पित कर बल्कि सदुपयोग करनेके लिए ईश्वर देता

१२. मैं अपनी कमाईका मालिक हूँ ही नहीं। दिया है। मैं कमाता हूँ, ऐसा मुझे मोह नहीं है; है, ऐसा ही मानता हूँ।

१३. अपनी सारी कमाईमें मैं आपका हिस्सा समझता हूँ। किन्तु अब तो मेरी कमाई जैसी कोई चीज ही नहीं बची, इसलिए वहाँ क्या भेजूँ।

१४. मैं आपके हिस्से का उपयोग नहीं करता, बल्कि ईश्वर मुझे जो सार्वजनिक कामके लिए भेजता है, उसे उसमें लगाता हूँ। यह करते हुए यदि बचे, तो जितना आपका हिस्सा हो उतना ही नहीं, बल्कि ज्यादा भेजनेकी इच्छा रखता हूँ।

१५. मुझे ऐसा बिलकुल नहीं लगता कि मैंने आपको या किसीको लूटा है। व्यवहार तथा नीतिकी दृष्टिसे यदि मैं जीवमात्रको समान मानता हूँ तो जो मेरे ऊपर अधिक निर्भर हैं उन्हें मेरा अधिक देना उचित है। अर्थात् स्त्रीको पहले, उसके बाद उन्हें जिनका मुझपर अधिकार