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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


भारतमें आजकल कुछ लोग यह मानते हैं कि अंग्रेज सरकारसे न्याय न माँगा जाये। उसका कारण वे यह बताते हैं कि यदि अंग्रेज न्याय देते हैं तो देशमें उनके पैर और अधिक जम जायेंगे। और यदि उनके पैर जम जायेंगे तो स्वदेशभक्तिको क्षति पहुँचेगी। परन्तु यह विचार गलत है। ऐसी सीख देनेवाले स्वयं उन अंग्रेजोंका दोष अपने सिर लेना चाहते हैं जो अपनी चमड़ीके गर्वमें भारतीयोंको सताते हैं और इसलिए दोषी माने जाते हैं। और इसलिए, यह बात उस आन्दोलनके विरुद्ध पड़ जाती है जो मनुष्य जातिका एक संगठन बनाकर रहनेके सम्बन्धमें सारी दुनियामें चल रहा है। यदि निजी स्वार्थकी जगह समाज स्वार्थकी प्रतिष्ठा करें तब भी सर्वोच्च नीतिका भंग होता है। यदि कोई अच्छा बनना और रहना चाहे तो उसे सर्वोच्च नीतिका ध्यान रखना होगा। उस नीति तक भले ही वह न पहुँच पाये, फिर भी उसका लक्ष्य तो ऊँचेसे ऊँचा होना चाहिए। जिसका लक्ष्य सही न हो वह तो कभी भी मुकामपर नहीं पहुँच सकेगा। हमें अपनी कमियोंके बावजूद सदैव ऊँचा चढ़नेका प्रयत्न करना चाहिए। और जैसे यह बात एक व्यक्तिपर लागू होती है वैसे ही व्यक्ति समूहपर अर्थात् राष्ट्रपर भी लागू होती है। फिर यह भारतपर अधिक लागू होती है। क्योंकि कौन-सा मार्ग अपनाया जाये, इसपर भारत अभी विचार कर रहा है। अपना स्वार्थ साधना निकृष्ट है। राष्ट्रका स्वार्थ साधना एक सीढ़ी ऊपर चढ़नेके समान है। जो व्यक्ति अपने राष्ट्र के लिए प्राण देता है वह महापुरुष कहलाता है। किन्तु जब अपने राष्ट्रका स्वार्थ साधने के लिए दुनियाके स्वार्थको हानि पहुँचाई जाये तब उस राष्ट्रस्वार्थको निकृष्ट मानना चाहिए। यदि हम सारे संसार में शान्ति और भलाई देखना चाहते हैं तो हमें सारे संसारके स्वार्थमें अपने और अपने राष्ट्रके स्वार्थकी गणना करनी चाहिए। भारतकी जनताको पिछले वर्षोंमें बहुत ही कष्ट सहन करना पड़ा है। इसका कारण यह है कि स्वदेशाभिमानका घमण्ड रखनेवाले अंग्रेजोंने अपना ही स्वार्थं खोजा। क्या भारतके नेतागण ऐसे स्वार्थी अंग्रेजोंका अनुकरण करना चाहते हैं? क्या वे पापीको धिक्कारते हैं, किन्तु पापसे प्रेम करते हैं? उन्हें लालचवश ठगाना नहीं चाहिए। स्वतन्त्रता और प्रगतिके शत्रु जुल्मी राज्य हैं, न कि जाति या चमड़ीके भेद। रूसमें रूसियोंका अपना राज्य है, फिर भी वहाँ वे जुल्म करते हैं और वहाँकी हालत भारतके समान ही बुरी मानी जायेगी। इसलिए इस परिस्थितिका इलाज केवल यह है कि दुनियामें जहाँ भी भले और परमार्थी लोग हों वे मिल जायें। इसलिए उन अंग्रेज सुधारवादियोंके साथ, जो बलवान हैं, भारतीय सुधारवादियोंको, जो निर्बल हैं, मिलना चाहिए। इंग्लैंड और भारतके वर्तमान सम्बन्धोंसे ऐसा मिलन सहज हो सकता है। परन्तु भारतके साथ अंग्रेजोंका जो सम्बन्ध है उसे न्यायकी बुनियादपर खड़ा करना जरूरी है। यह भावना दूर होनी चाहिए कि इंग्लैंड मालिक है और भारत नौकर। यदि ऐसा हो तो इंग्लैंड और भारत साथ-साथ रहकर दुनियासे मित्रता कर सकते हैं और मानव-जातिकी भलाई करने में योग दे सकते हैं।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन २७-४-१९०७