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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जाने का साहस करना बहुत बड़ा काम है। एक भी भारतीयको पीछे पाँव नहीं रखना है, नहीं तो जीती हुई बाजी हारनी होगी।

भारतीय कितने बुरे

'रैंड डेली मेल' में इस पत्रके सम्पादकने श्री चमनेकी रिपोर्टपर जो सख्त टीका की है। उसको लेकर "न्यायी" उपनामसे किसी गोरेने लेडनबर्गसे एक अन्यायी पत्र लिखा है। उसमें वह लिखता है :

भारतीयोंके कामके दिन सप्ताहमें सात होते हैं। सूर्यके उगनेसे लेकर डूबने तक वे काम करते हैं। रविवारको वे बहीखाते लिखते हैं, फेरीवाले एक-दूसरेका हिसाब साफ करते हैं। दूसरे छुट्टीके दिन या तो खुलेआम दूकान खुली रखते हैं या कुछ व्यक्तियोंको बाहर खड़ा कर देते हैं, जिससे वे ग्राहकोंको दुकान में भेज दें। देहातोंके भारतीय व्यापारी रविवारको एजेंट लोगोंके लाये हुए नमूने देखते हैं, जिससे एजेंटोंको भी सात दिन काम करनेको मिलता है। समयपर पैसे देना तो वे जानेंगे ही क्यों? ९० दिनकी मुद्दतके १५० दिन बनाना तो उनका स्वाभाविक धन्धा है। लेनदारोंको रुपये में सिर्फ एक टका चुकाना उनके लिए मामूली बात है। अपने तथा अपने रिश्तेदारोंके नामसे व्यापार करके दिवाला निकालनेवाले लोगोंकी गिनती नहीं है। वे माल खरीदते समय बातचीत करनेमें अपनी बुद्धिका जितना परिचय देते हैं उतना ही दिवालियेपनके सम्बन्धमें खुलासा करते समय बनावटी मूर्खता दिखाकर छूट जाने में भी देते हैं। ९५ प्रतिशत भारतीयोंका व्यापार गन्दा है। कोई भी भारतीय ग्राहकको कभी नहीं छोड़ता। नुकसान खाकर भी माल बेचता है। उसमें नुकसान हो तो वह उसका नहीं, बल्कि लेनदारका होता है। जो व्यापारी ऐसे भारतीयोंसे सम्बन्ध रखते हैं वे भारतीयोंसे कम दोषी नहीं माने जायेंगे। जब ऑरेंज रिवर उपनिवेशसे सबक लेकर ट्रान्सवाल हर्जाना देकर या न देकर भारतीय दूकानें बन्द करेगा, तभी स्टैंडर्टन, हीडेलबर्ग, अरमीलो, क्लार्क्सडॉर्प वगैरह शहरोंमें यूरोपीय व्यापारी व्यापार कर सकेंगे।

इसके उत्तरमें 'मेल' के सम्पादकने लिखा है कि यदि "न्यायी" की सारी बातें सच हों तो इतने गोरे व्यापारी भारतीयोंसे जो व्यापार करते हैं वह समझमें नहीं आ सकता श।

अतः "न्यायी" के पत्रका उत्तर तो मिल चुका है। उसके पत्रमें कुछ तो अतिशयोक्ति है, लेकिन कुछ बातें मंजूर करनी होंगी। हम रात-दिन काम करते हैं; रविवारको भी आराम नहीं करते; वचनोंका निर्वाह नहीं करते और रुपयोंके बदले टके चुकाते हैं। निःसन्देह इन सब बातोंमें सुधार करनेकी आवश्यकता है। मुख्य बात तो यह है कि हममें टेक होनी चाहिए और अमीरकी सीखके अनुसार सबको पाश्चात्य शिक्षा लेनी चाहिए।[१] अब मण्डलोंकी तो सीमा नहीं रही। कोई भी प्रतिष्ठित व्यापारी "व्यापारीवर्ग सुधारक मण्डल" शुरू करे और महत्त्वपूर्ण सुधार कर सके तो बहुत-सी तकलीफें दूर हो जायेंगी और परवाना सम्बन्धी कठिन कानून भी रद हो जायेगा।

ईश्वरीय कोप

जोहानिसबर्गमें आजकल ट्रामगाड़ी समय-समयपर रुक जाती है। ऐसा दिन शायद ही कोई हो जब ट्रामगाड़ी रुकी न हो। इसके दो कारण हो सकते हैं। भारतीय समाज मान

  1. देखिए "अलीगढ़ कॉलेजमें महामहिम अमीर हबीबुल्ला", पृष्ठ ३६९-७०।