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४६५. पत्र : 'स्टार' को[१]

जोहानिसबर्ग
मई ११, १९०७

सेवामें
सम्पादक
'स्टार'
[जोहानिसबर्ग]
महोदय,

एशियाई पंजीयन अधिनियमके बारेमें श्री पोलकके पत्रपर अपने अग्रलेखमें आपने कहा है कि यदि प्रस्तावित अनाक्रामक प्रतिरोधके फलस्वरूप अत्यधिक उग्र आन्दोलनकारियोंको देशसे निर्वासित कर दिया गया तो एशियाई व्यापारियोंके कट्टरतम विरोधियोंको, कदाचित्, कोई दुःख नहीं होगा। लेकिन एशियाई व्यापारियोंके "कट्टर विरोधियों" के दुर्भाग्यवश, जहाँतक मैं समझ सका हूँ, अनिवार्य देश निर्वासन की ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है, जैसी आप सोचते प्रतीत होते हैं। इसलिए यदि उनकी इच्छा पूरी करनी है तो उन सब भारतीयोंको जबरदस्ती उपनिवेशसे निकाल बाहर करनेके लिए एक नया कानून बनाना पड़ेगा, जो अपने देशवासियोंका कुछ आत्मसम्मान और पौरुष बनाये रखने के संघर्ष में, अपने खयालसे, अपने देश तथा साम्राज्यकी सेवा कर रहे हैं। आप आगे लिखते हैं :

हमारा विश्वास है कि इन लोगोंके प्रभुत्वसे मुक्त हो जानेपर ट्रान्सवालमें कानूनी तौरसे बसे हुए ब्रिटिश भारतीयोंकी आबादीका एक बहुत बड़ा भाग शीघ्र ही ज्यादा बड़ी सुरक्षाके महत्त्वको समझना सीख जायेगा, जो उन्हें इस कानूनसे मिलती है। और तब वे जानेंगे कि इस नये कानूनके वास्तविक प्रभावके बारेमें उनको कितना भ्रान्त किया गया है।

ब्रिटिश भारतीयोंकी भावनाओंको न समझने की आपकी असमर्थता बखूबी समझी जा सकती है। यदि आप सोचते हैं कि एक भी ऐसा भारतीय है, जो इस प्रभुत्वके (जिसका कि कोई अस्तित्व नहीं है) हट जाने से कानून द्वारा मिली हुई इस "ज्यादा बड़ी सुरक्षा" की सराहना करेगा, तो आपने सम्पूर्ण भारतीय समाजको बिलकुल गलत समझा है। कोशिशों के बावजूद मुझे उसमें कोई ज्यादा बड़ी सुरक्षा दिखाई नहीं पड़ी। नये विधानके वास्तविक प्रभावके बारेमें भारतीय जनताको बरगलाने का कोई सवाल नहीं उठता। मामला सीधा-सादा है। अनिवार्य पंजीयनसे व्यक्तिकी निजी आजादीपर उसकी चमड़ीके रंगके कारण एक खास नियन्त्रण लागू होता है। ट्रान्सवालके भारतीयोंको बता दिया गया है कि इस तरहका विधान गहरे अपमान तथा एक प्रकारकी गुलामीका द्योतक है। इसलिए उन्हें यह सलाह दी गई है कि नये विधान में उनके लिए जो स्थिति तय की गई है, वह और प्रकारसे कितनी ही लुभावनी क्यों न प्रतीत

  1. यह १८-५-१९०७ के इंडियन ओपिनियन में उद्धृत किया गया था।