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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कविके कथनके अनुसार इसमें ढील नहीं चल सकती। भयके कारण हिम्मत छूटना सम्भव है, इसलिए हमें भय नहीं रखना चाहिए। हममें कहावत है कि शंका भूत और मनसा डाकिन। उसी के अनुसार यदि हम शंका करते रहेंगे तो कई तरह के विचार आते रहेंगे। किन्तु यदि शंका छोड़ देंगे तो आगे जाकर विजयका डंका बजा सकेंगे। यदि कोई कुछ निमित्त बताता है। तो समझना चाहिए कि वह भयके कारण है। ऐसी भयरूपी डाकिनको निकालकर प्रत्येक भारतीय यह निश्चय करेगा कि कोई चाहे कुछ भी करे, मैं तो नये कानूनके सामने झुकने के बजाय जेल ही जाऊँगा तो आखिर हम देखेंगे कि कोई भारतीय नामर्द होकर नया अनुमतिपत्र नहीं लेगा। कोलम्बसको सभी मल्लाह मारने के लिए खड़े हो गये थे तब भी उसने हिम्मत नहीं छोड़ी; इसीलिए उसने अमेरिकाका पता लगाया और दुनियामें नाम पाया। नेपोलियन कॉर्सिका द्वीपका एक युवक था। उसने अपने शौयंसे सारे यूरोपको कँपा दिया था। उसके शब्दपर लाखों सिपाही दौड़ते थे। लूथरको पोपने गुलामीका चिट्ठा भेजा, तो उसने उसे फाड़ डाला और बन्धन मुक्त हो गया। महाकवि स्कॉट अपने अन्तिम दिनोंमें भी टेकके साथ लिखता रहा और उसने कमाकर अपना सब कर्ज चुकाया। सिकन्दर की हुकूमतसे हरएक परिचित है। हमारे सामने ऐसे उदाहरण होते हुए भी क्या ट्रान्सवालके भारतीय हिम्मत हार जायेंगे? हमारे पास पत्र आते रहते हैं कि सितम्बर में की हुई प्रतिज्ञा वे कभी नहीं छोड़ेंगे। किन्तु यदि उन वचनोंका त्याग करके भारतीय समाज पीछे कदम रखेगा तो हम निम्न भविष्यवाणी करते हैं।

यदि भारतीय समाज नये कानूनके अन्तर्गत अनिवार्य पंजीयनपत्र ले लेगा तो कुछ ही समयमें :—

  1. ट्रान्सवालमें व्यापारका परवाना बन्द हो जायेगा।
  2. लगभग सभी भारतीयोंको बस्तीमें रहने और व्यापार करने जाना होगा।
  3. मलायी बस्ती हाथसे निकल जायेगी और वहाँ रहनेवालोंको क्लिप्स्प्रूट जानेकी नौबत आयेगी।
  4. जमीनका हक पानेकी आशा छोड़ दें।
  5. भारतीयोंपर पैदल पटरी कानून लागू होगा।
  6. अगले वर्ष नेटालके व्यापारी-परवाने ज्यादा रद होंगे; और
  7. ट्रान्सवाल जैसा पंजीयन कानून सारे दक्षिण आफ्रिकामें चालू होगा।

क्या इस स्थितिमें भारतीय दक्षिण आफ्रिकामें रहना चाहेंगे?

यदि इस कानूनका विरोध किया जायेगा तो हम निश्चयपूर्वक तो नहीं कह सकते कि उपर्युक्त सभी हक प्राप्त हो ही जायेंगे; किन्तु कुछ तो मिलेंगे ही। हक मिलें या न मिलें, दुनिया इतना तो जान लेगी कि भारतीय समाजने अपना नाम रख लिया। ट्रान्सवालकी सरकार समझ लेगी कि भारतीय समाजका अपमान हमेशा आसानीसे नहीं किया जा सकता। लाख भले चले जायें, लेकिन साख नहीं जानी चाहिए; और भारतीयोंकी वह साख रह जायेगी।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, १८-५-१९०७