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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अनधिकृत प्रवेशका पता लगानेके लिए वर्तमान व्यवस्था परिपूर्ण है

१२. इस प्रकार ट्रान्सवालके अनधिकृत भारतीय निवासियोंको दण्डित करनेके लिए व्यवस्था परिपूर्ण और प्रभावशाली है। और भारतीय समाजने स्वेच्छापूर्वक पंजीयन कराकर, जैसा ऊपर उल्लेख किया गया है, अधिकारियोंके लिए जाली लोगोंकी शिनाख्तका पूरा-पूरा साधन मुहैया कर दिया है। जिन भारतीयोंने अन्य भारतीयोंके अनुमतिपत्र लेकर प्रवेश करनेकी चेष्टा की है उन्हें भारी दण्ड मिला है। ऐसे बहुत से मामले दर्ज हैं।

१३. इसलिए स्पष्ट ही जाली या अनधिकृत प्रवेशको रोकनेके लिए किसी और कानूनी व्यवस्थाकी कोई आवश्यकता नहीं दिखाई देती। अनुमतिपत्रके वर्तमान नियमोंके अन्तर्गत, एक अधिकारीके बयानके मुताबिक,

(१) स्त्रियाँ, अपने पतियोंके साथ हों चाहे नहीं,

(२) बच्चे, उनकी उम्र चाहे जो हो, दूधपीते हों, अपने वालदैनके साथ हों या नहीं, उनके लिए अनुमतिपत्र उपस्थित करना आवश्यक है। ऐसे मामले हुए हैं जिनमें पाँच वर्षकी आयुके नादान बच्चे अपने माता-पिताओंसे और पत्नियाँ अपने पतियोंसे अलग कर दी गई हैं; यद्यपि पिताओं या पतियोंने, जो अपने बच्चों या पत्नियोंके साथ थे, अनुमतिपत्र प्रस्तुत किये थे।

१४. ट्रान्सवालके जिन पुराने निवासियोंने अपने निवासका ३ पौंड शुल्क चुका दिया है उन्हें भी अनुमतिपत्र मिलनेमें महीनों लग जाते हैं, सो भी बड़ी सख्त और गुप्त छानवीनके बाद, जिसे निकाय अपनी फुरसतसे करते हैं।

नया अध्यादेश

१५. ये निर्योग्यताएँ तो थीं ही, ऊपरसे संशोधन अध्यादेश भारतीय समाजपर वज्रके समान आ गिरा है। इससे ट्रान्सवालके प्रत्येक भारतीय निवासी के लिए पास रखनेकी अपमानजनक प्रणाली प्रारम्भ होती है। इससे शिनाख्तकी एक ऐसी पद्धति स्थापित होती हैं जो समय-समयपर बदल सकती है। भारतीयोंके एक शिष्टमण्डलको सहायक उपनिवेश सचिवने बताया कि सभी अँगुलियोंके निशान देने आवश्यक होंगे और जो भी पुलिस अधिकारी भारतीयोंकी जाँच करना चाहेगा, उन प्राप्तकर्ताओंको उसे ऐसे निशानवाले पास दिखलाने पड़ेंगे। बड़ी कठिनाईसे प्राप्त अनुमतिपत्र और पंजीयन-प्रमाणपत्र नये प्रमाणपत्रोंके बदलेमें लौटा देने होंगे। हम यह भी कह दें कि उपर्युक्त पंजीयनके लिए लोग बड़े सवेरे अपने कमरोंसे घसीटकर निकाले गये थे और उनके साथ बड़ा सख्त बरताव किया गया था।

इसका वास्तविक स्वरूप

१६. वास्तवमें अध्यादेशका उद्देश्य पंजीयन नहीं, बल्कि एक ऐसी किस्मकी शिनाख्त है जिसका प्रयोग घोर अपराधियोंके लिए किया जाता है। जहाँतक हमें मालूम है, ऐसा कानून किसी भी ब्रिटिश उपनिवेशमें अज्ञात है। इसे मुश्किलसे १८८५ के कानून ३ का संशोधन कहा जा सकता है क्योंकि निश्चय ही इसकी कार्य-सीमा उससे सर्वथा भिन्न है।

१७. संशोधक कानून प्रत्येक अनुमतिपत्रको तबतक बेकार ठहराता है जबतक उसका प्राप्तकर्ता यह न साबित कर दे कि उसमें कोई जालसाजी नहीं है। माता-पिताओंके पास भले