ही वैध अनुमतिपत्र हों, पर इस कानूनसे उनके बच्चे प्रशासन अधिकारीकी दयाके मोहताज हो जाते हैं। यह वर्गविशेषके लिए निकृष्टतम ढंगका विधान है और इसका उद्देश्य भारतीयोंको बहुत क्षुब्ध और अपमानित करनेके सिवा कुछ भी नहीं है।
तथाकथित राहत
१८. ३ पौंडकी छूटकी बात बेकार है क्योंकि इस समय ट्रान्सवालवासी प्रत्येक बालिग भारतीय पुरुष, और बहुत-से मामलोंमें तो बच्चे भी, इसे अदा कर चुके हैं। ट्रान्सवाल उपनिवेश-सचिवके वक्तव्यके अनुसार कोई भारतीय, जो युद्धसे पूर्व ट्रान्सवालका निवासी नहीं था, इस उपनिवेशमें तबतक प्रवेश न पा सकेगा जबतक उत्तरदायी सरकार प्रवासके प्रश्नपर विचार न कर लेगी। और चूँकि वर्तमान भारतीय निवासी ३ पौंड पहले ही दे चुके हैं और युद्धके पहले अधिकांश निवासी, जिन्हें अभी वापस आना है, बोअर सरकारको ३ पौंड दे चुके हैं, इसलिए ३ पौंडकी छूट कोई रियायत नहीं है।
१९. अस्थायी अनुमतिपत्रोंके लिए अधिकारपत्रकी भी आवश्यकता नहीं है क्योंकि वे शान्ति-रक्षा अध्यादेश के अन्तर्गत अधिकारियोंकी मर्जीपर दिये गये हैं।
२०. जहाँतक मद्य-संभरण सम्बन्धी सुविधाके भारतीयोंपर लागू होनेकी बात है, वह उनका सीधा अपमान है।
२१. उन भारतीयोंके उत्तराधिकारियोंको, जिनके पास १८८५ के कानून ३ के पहले अचल सम्पत्ति थी, मिलनेवाली राहत व्यक्तिगत रूपकी है। और उसका असर ट्रान्सवालमें जमीनके एक छोटे-से टुकड़ेपर पड़ता है।
२२. इसलिए इस अध्यादेशसे भारतीय समाजको न तो किसी प्रकारकी राहत मिलती है और न उसकी रक्षा होती है।
तुलना
२३. इस संशोधन अध्यादेशमें १८८५ के कानून ३ की सब निर्योग्यताएँ ज्यों-की-त्यों रह जाती हैं तथा ब्रिटिश भारतीयोंकी स्थिति १८८५ के कानून ३ के अन्तर्गत जितनी बुरी थी, उससे भी ज्यादा बुरी हो जाती है। इस तथ्य के बारेमें हम जितना कहें, थोड़ा होगा। यह कथन निम्न तुलनासे और भी अधिक स्पष्ट हो जायेगा :
१८८५ के कानून ३ के अन्तर्गत १. केवल व्यापारियोंको ३ पौंड 'चुकाना और रसीदें लेनी पड़तीं थीं। २. शिनाख्तका कोई ब्योरा नहीं देना होता था। ३. पंजीयनका सम्बन्ध प्रवास प्रतिबन्ध- से नहीं था। |
नये अध्यादेशके अन्तर्गत अब सब भारतीय पुरुषोंको (जो ३ पौंड कर पहले ही दे चुके हैं) पंजीयन प्रमाणपत्र लेने होंगे। अब शिनाख्तका अत्यन्त अपमानजनक ब्योरा देना पड़ेगा। यह पंजीयन मुख्यतः प्रवास रोकने के लिए है। |