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एक टेक

ट्रान्सवालके भारतीय समाजको इसी प्रकार सोचना चाहिए। “सर्वस्व चला जायेगा तब भी नया कानून मंजूर नहीं करेंगे"—यह टेक रखना आवश्यक है। इस कानूनकी धाराएँ प्रकाशित हुई है। उनका तर्जुमा हम इस अंकमें दे रहे हैं। वे धाराएँ इतनी सख्त और कठोर हैं कि उनकी किसीको स्वप्नमें भी कल्पना नहीं हो सकती। जनरल बोथाने विलायतमें जो मीठी-मीठी बातें की थीं उनपर पानी फिर गया है। इससे हमें बहुत खुशी है। यदि इस जहरकी गोली रूपी कानूनपर चाँदीका वर्क चढ़ा हुआ होता तो भी भारतीय भुलावेमें आकर धोखा खा सकते थे। किन्तु अब तो एक भी भारतीय ऐसा नहीं होगा जो इस कानूनको स्वीकार करे।

इस कानूनके सामने झुकनेवाले भारतीयको क्या लाभ होगा, यह भी जरा हम देखें। एक तो यह कि वह अपने खुदाको भूलेगा; दूसरा यह कि उसकी प्रतिष्ठा बिलकुल समाप्त हो जायेगी; तीसरा यह कि उसे सारे भारतका शाप मिलेगा; चौथा यह कि उसके लिए बस्तीमें जानेकी नौबत आयेगी और आखिर ट्रान्सवालमें कुत्तेकी जिन्दगी बितानी होगी। कानूनके सामने झुककर कौन भारतीय ऐसे लाभ भोगना चाहेगा? अब न झुकनेवालेकी भी बात लें। वह खुदासे डरनेवाला माना जायेगा, वह खुदाके साथ किये हुए इकरारका पालन करनेवाला माना जायेगा, शूर माना जायेगा। भारतीय उसका स्वागत करेंगे, जेल उसके लिए महल माना जायेगा। उसे ज्यादासे-ज्यादा यदि कोई दुःख होगा तो यह कि उसकी सारी सम्पत्ति नष्ट हो जायेगी और अन्तमें शायद ट्रान्सवाल भी छोड़ना पड़े। यदि ट्रान्सवाल छोड़ना पड़ा तो क्या दूसरी जगह खुदा नहीं है? जिसे दाँत दिये हैं उसे चबेना देनेवाला मालिक हर जगह बैठा हुआ है। उस मालिकको खुशामद नहीं चाहिए। वह हमारे कानमें केवल यह कहता रहता है कि मुझपर भरोसा रख। यदि उसकी मधुर वाणी हमें सुनाई नहीं देती तो कानोंके होते हुए भी हम बहरे हैं। यदि वह हमें अपने पास बैठा हुआ दिखाई नहीं देता तो आँखोंके होते हुए भी हम अन्धे है।

यदि भारतीय समाज अपनी टेक निभायेगा तो हम मानते हैं कि कोई भी भारतीय बरबाद नहीं हो सकता। ट्रान्सवालके भारतीयोंकी तो बात ही दूर, सारे दक्षिण आफ्रिकाके भारतीयोंको मुक्ति मिल जायेगी। क्योंकि भारतीय जनता अपनी ताकत पहचान जायेगी और बहादुर बोअरोंको हमारी बहादुरीका पता चल जायेगा।

एक बार एक सिंह बचपनसे भेड़ोंके बीच पलनेके कारण अपना भान भूल गया और अपने आपको भेड़ ही मानने लग गया। किन्तु दूसरे सिंहोंका यूथ देखकर उसे अपना कुछ भान हो आया। यही स्थिति भारतीय सिंहकी समझनी चाहिए। बहुत समयसे हम अपना भान भूले, पामर बने बैठे हैं। यह भान करानेवाला समय आया है इसलिए

राखी परो विश्वास धणीनो[१] साचो।
जवूं[२] जेल, जेलने-जेल एम उर राचो।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, ६-७-१९०७

[३] स्वामीका। २. जाना है। ३. और। ४. ऐसा।

[४]ये पंक्तियाँ पुरस्कृत कविता 'जेल-यात्रा' की हैं।

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