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जोहानिसबर्गकी चिट्ठी

आत्मप्रतिष्ठा रखना चाहता है। इस तरह विरोध करनेसे छुटकारा कैसे होगा, यह कहा नहीं जा सकता, किन्तु बहादुर उपनिवेशियोंको भारतीयोंकी बहादुरीका पता चल जायेगा। यदि वैसा न हो तब भी भारतीय समाज जेल जायेगा और आखिर ट्रान्सवाल छोड़कर चला जायेगा, किन्तु गुलामीकी हालतमें यहाँ नहीं रहेगा।

इसपर टीका करते हुए 'डेली मेल' सहानुभूति व्यक्त करता है और कहता है कि भारतीय समाजको कानून स्वीकार कर लेना चाहिए, क्योंकि उसमें सरकारका उद्देश्य अपमान करना नहीं है। अँगुलियां लगवाने में सरकारका उद्देश्य दूसरे भारतीयोंको आनेसे रोकना है। इसीके साथ 'डेली मेल'का संवाददाता लिखता है कि सरकारने जान-बझकर पहले प्रिटोरियाको लिया है, क्योंकि वह सबसे निर्बल है, इसलिए वहाँके भारतीय तो निश्चय ही नया पंजीयनपत्र ले लेंगे, और तब दूसरे तो अपने-आप लेंगे। मुझे विश्वास है कि प्रिटोरिया इस चुनौतीको झेल लेगा और बहादुरी दिखायेगा।

श्री गांधीका उत्तर

'डेली मेल'के उपर्युक्त पत्रका श्री गांधीने नीचे लिखा उत्तर दिया है:

‘स्टार’ की टीका

'स्टार' पत्रने बहुत टीका की है और उसे डर भी लग रहा है, इसलिए वह लिखता है कि भारतीय समाजको दस अंगुलियोंकी निशानी देनेके सिवा और कोई कष्ट नहीं है। फ्रीडडॉर्पसे विना हर्जाना दिये उन्हें कोई नहीं निकालेगा। ट्राममें उन्हें छूट है ही, और अँगुलियोंकी निशानी तो भारतीय सिपाही भारतमें भी देते हैं।

स्पष्ट ही यह सब सरासर झूठ है। फ्रीडडॉर्पमें हर्जाना मिले तबकी बात तब; ट्राममें भारतीयोंको अभी तो धक्के दिये जाते हैं; और भारतीय स्वेच्छापूर्वक अँगुलियोंकी निशानी दें और अपढ़ सिपाही व्यापारीसे जबरदस्ती अँगुलियाँ लगवाये, इन दोनोंमें अन्तर नहीं है, यह बात तो 'स्टार' ही कह सकता है। किन्तु 'मेल' और 'स्टार' दोनोंकी टीकाओंसे मालूम होता है कि भारतीय कौमकी लड़ाईकी तैयारीसे डर पैदा हो गया है। तब, भारतीय समाज यदि सच्ची बहादुरी बताता है तो क्या नहीं कर सकता?

'नेटाल कांग्रेसकी सहानुभूति

नेटाल काँग्रेसकी ओरसे भारतीय समाजके नाम एक तार आया है, जिसमें जेलके निर्णयपर डटे रहकर अपनी टेक बनाये रखने और आर्थिक सहायता देनेके बारेमें है। यह सहानुभूति बहुत कामकी है। लेकिन समय ऐसा है कि जो आर्थिक सहायता देनी हो वह अभी पहुँच जानी चाहिए। भारतीय समाज यदि सचमुच पुरुषार्थ दिखाता है तो निस्सन्देह पैसेकी बहुत जरूरत होगी।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, ६-७-१९०७

[१] इसके बाद गांधीजीने पत्रका गुजराती अनुवाद दिया है जो यहाँ नहीं दिया जा रहा है। मूलके लिए देखिए “पत्र: रेड डेली मेल' को” पृष्ठ ६७-६८।

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