हस्ताक्षरके लिए इस कानूनको लॉर्ड एलगिनके पास भेजना होगा। यदि यह हुआ तो भारतीय समाजको वहाँ [लन्दनमें] टक्कर लेनी चाहिए। यह तो लिखा जा चुका, किन्तु इसके छपनेके पहले, यानी गुरुवार, तारीख ११ को, विधेयकके बारेमें और भी बातें मालूम होंगी। वे सब दूसरे अंकमें दी जा सकेंगी।
इंडियन ओपिनियन, १३-७-१९०७
६४. पत्र: छगनलाल गांधीको
[जोहानिसबर्ग
जुलाई ११, १९०७के पूर्व]
तुम्हारा पत्र मिला। काजीके सम्बन्ध में तुमने जो लिखा वह मैंने ध्यानमें रख लिया है। श्री पोलक प्रिटोरियासे अभी लौटे हैं। वहाँ उनका काम बहुत ही अच्छा रहा।
मैंने फुटकर छपाईके बारेमें श्री वेस्टको पत्र लिखा है। जैसा मैं उनसे कह चुका हूँ, इब्राहीम मुहम्मदका जो पता तुम्हारे पास है, चुंगीके फार्म उसपर भेजने हैं। वे ग्राहक हैं।
मुझे निश्चय है कि हिन्दी न छापना अदूरदर्शितापूर्ण नीति है। हम दरअसल अपने मुल धनका भी उपयोग नहीं कर रहे हैं। 'रामायण' की बिक्री निश्चितरूपसे होगी और मेरी सम्मतिमें यह कार्य बड़ा मूल्यवान होगा। इसका सीधा-सादा कारण यह है कि हजारों लोग, जो पूरी रचनाका अध्ययन नहीं कर सकते, इस संक्षिप्त संस्करणका लाभ प्रसन्नतापूर्वक उठायेंगे। इसलिए यदि कोई अच्छा आदमी मिले तो तुम्हें निश्चय ही खर्च करनेमें झिझकना न चाहिए। जिस तर्कसे तुम इस परिणामपर पहुँचते हो कि यहाँको लागतके अनुसार किताब महंगी होगी, वह एक हद तक गलत है। हमारे सामने यह स्पष्ट होना चाहिए कि यदि खर्च अधिक आता है तो हम मूल्य भी उतना ही अधिक लेते हैं। यहाँ “अधिक" शब्द सापेक्ष है। जिस 'भगवद्गीता' को हम भारतमें एक आने में बेचते उसीका हम यहाँ एक शिलिंग लेते हैं, क्योंकि लागत अपेक्षाकृत अधिक है। मुझे पूरा निश्चय है कि हम, जिस देशमें रहते हैं,
[१] स्पष्ट है, गांधीजीने यह अपने ११ जुलाईके पत्रसे पूर्व लिखा था। अगला शीर्षक देखिए, जिसमें गांधीजीने रामायणके प्रकाशनके बारे में लिखा है।
[२] इंडियन ओपिनियन के सम्पादक और गांधीजीके साथी; देखिप खण्ड ४, पृष्ठ ३५२, दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास, अध्याय १९, २३, ४५ और आत्मकथा भाग ४, अध्याय, १८, २१।
[३] अल्बर्ट एच० वेस्ट, इंडियन ओपिनियनके मुद्रक और फीनिक्स आश्रमके निवासी देखिए खण्ड ४, पृष्ठ ३५२, दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास, अध्याय २३, ४७ और आत्मकथा भाग ४, अध्याय १६, १८ आदि।
[४] यह श्रीमती बेसेंटके अनुवाद के संस्करणका उल्लेख है जो १९०५ में प्रकाशित किया गया। देखिए खण्ड ५, पृष्ठ ४५९।