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ट्रान्सवाल प्रवासी-विधेयकपर बहस

देखें, उससे बँध जायगी। और अगर यह मसला आलोचनासे परे है तो लॉर्ड एलगिनका यह वक्तव्य —कि “महामहिमकी सरकारको अब भी यही राय है कि एशियाइयोंपर इस समय जो पाबन्दियाँ लगी हुई हैं उनमें संशोधन करनेकी आवश्यकता है,"—एक सदिच्छामात्र है, जिससे ब्रिटिश भारतीय बहुत आशा नहीं रख सकते। और हो सकता है, जबतक वह कानून, जिसके खिलाफ लड़ने के लिए ट्रान्सवालवासी एशियाइयोंने अपना सर्वस्व दाँवपर लगा दिया है, उनके सामने एक कठोर वास्तविकता बनकर खड़ा है, तबतक यह इच्छा कभी फलित न हो। विनिमयोंमें सुधार करनेके लिए जनरल बोथाने जो वचन दिये है उनसे भारतीयोंका कोई विशेष सम्बन्ध नहीं। परन्तु प्रसंगवश यह बता दिया जाये कि जिस उग्र पूर्वग्रहसे स्थानीय सरकार ओतप्रोत है उसका ही यह एक लक्षण है कि जनरल अपने वचनको पूरा नहीं कर सके। उपनिवेश सरकारके विचारोंमें भारतीयोंकी भावनाओंका कोई महत्त्व नहीं है।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २०-७-१९०७

७३. ट्रान्सवाल प्रवासी-विधेयकपर बहस

ट्रान्सवालकी विधानसभामें प्रवासी-प्रतिबन्धक विधेयकके दूसरे वाचनपर जो विवाद हुआ, वह कई बातोंमें आँखें खोल देनेवाला है। श्री स्मट्सने विधेयकको सदनमें बहुत ही सरसरी तौरपर पेश किया। माननीय महानुभावने ब्रिटिश भारतीयोंको प्रभावित करनेवाले मुद्दोंको छुआतक नहीं। उन्होंने उन बातोंको इस लायक भी नहीं समझा कि उनमें सदस्यों या जनताको दिलचस्पी हो सकती है। उन्होंने इसे निश्चित मान लिया कि एशियाई पंजीयन अधिनियमको ट्रान्सवालके कानूनका एक स्थायी अंग होना चाहिए। श्री डंकनने इस विधानके पेश होनेपर जो-कुछ कहा था उसके विपरीत, उन्होंने इसे भी निश्चित मान लिया कि जहाँतक एशियाई समुदायोंका सम्बन्ध है, प्रवासी विधेयक उसका स्थान लेनेके लिए नहीं, बल्कि उसकी कठोरतामें जो कमी रह गई थी उसको पूरा करने के लिए बनाया गया है। उन्होंने सदस्योंको यह सूचित करनेका कष्ट नहीं किया कि इस विधेयक द्वारा सन् १८८५ के कानून ३ की, जो बोअर सरकारको ३ पौंड देनेवाले एशियाइयोंको निवास-सम्बन्धी संरक्षणकी गारंटी देता था, अवहेलना होगी; और उन्हें इस धारामें कुछ भी आपत्तिजनक बात दिखाई नहीं दी, जिसके अनुसार उच्च शिक्षा प्राप्त एशियाई भी उपनिवेशमें आनेपर एशियाई पंजीयन अधिनियम द्वारा निश्चित अग्नि-परीक्षामें से जबतक गुजर नहीं जाते तबतक वजित प्रवासी माने जायेंगे।

श्री नेसरके इस नम्र कथनके उत्तरमें, कि किसी व्यक्तिको बिना मुकदमा चलाये, उसके अपने ही खर्चेसे उपनिवेशसे निकाल देनेका असाधारण अधिकार सरकारको देना बड़ी खतरनाक चीज होगी, श्री वाइबर्गने अत्यधिक रोष प्रकट किया। किन्तु श्री वाइबर्गके उद्गारोंको हम सिर्फ आत्म-विस्मृति जनित मूर्खता कह सकते हैं। यही बात कोई दूसरा व्यक्ति कहता तो वह बहुत बड़ी गुस्ताखी होती। इस धारापर विचार करते हुए और सरकारसे उसपर दृढ़

[१] देखिए खण्ड ६ पृष्ठ १५७। श्री पैट्रिक डंकन १९०३ से १९०६ तक उपनिवेश-सचिव थे।

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